ब्रज मान्यतानुसार छठी पूजन के दिन ब्रह्माजी जातक का भाग्य लिखते हैं
आज भाद्रपद शुक्ल त्रयोदशी तदनुसार 30 अगस्त 2020, सोमवार को श्रीलाडलीलालजी (श्रीराधाजी) का छठी पूजन उत्सव है। श्रीराधाजी के जन्म उत्सव यानि कि ‘श्रीराधा अष्टमी’ के छः दिनों के बाद श्रीलाडलीजी का ‘छठी पूजन उत्सव’ समस्त विश्वभर में फैले श्रीराधा-कृष्ण में आस्था रखने वाले उनके देसी-विदेशी भक्तों द्वारा बड़े ही धूमधाम से मनाया जाता है। इसी तरह कान्हा के जन्म उत्सव ‘श्रीकृष्ण जन्माष्टमी’ के छह दिन बाद भी ठाकुरजी के ‘छठी पूजन उत्सव’ का आयोजन भी बडे ही हर्षोल्लास से किया जाता है। (श्रीकृष्ण छठी पूजन उत्सव भाद्रपद कृष्ण त्रयोदशी तदनुसार 17 अगस्त 2020, सोमवार को मनाया गया था)
ब्रज मंडल में छठी पूजन उत्सव प्रक्रिया :
ब्रज मंडल में जन्म लेने वाले प्रत्येक नवजात शिशु चाहे वह बालक हो अथवा बालिका, सनातन हिंदू धर्म पंचांग के अनुसार उसके जन्म के छठवें दिन की संध्या काल को जातक का छठी पर्व मनाया जाता है। (अंग्रेजी कैलेंडर के हिसाब से यह दिन पांचवा छठवां अथवा कभी कभी सातवां भी हो सकता है चूंकि हिंदू कैलेंडर में तिथियां घटती बढ़ती रहती हैं। हिंदू कैलेंडर में ग्रह नक्षत्रों के वास्तविक समय के अनुसार गणना होती है जबकि अंग्रेजी कैलेंडर में एक मानक समय निर्धारित कर दिया गया है) इस छठी पूजन पर्व को सामान्य बोलचाल की भाषा में ‘छठी पूजना’ भी कहते हैं। छठी पूजा पर्व ब्रज का न केवल लोक-पर्व है बल्कि ‘गोपाल चंपू’ आदि कई शास्त्रों में इसका उल्लेख है। अतः यह लोक-पर्व होने के साथ-साथ एक शास्त्रीय-पर्व भी है। इसके पीछे ब्रज की लोक मान्यता यह है कि छठी पूजा उत्सव की रात्रि को ब्रह्मा जी जातक के घर आकर उसका भाग्य लिखते हैं।
हालांकि हमारी सनातन संस्कृति में यह मान्यता है कि जातक के गर्भ में आने से पूर्व ही उसके प्रारब्ध के अनुसार उसका भाग्य निर्धारित हो जाता है, उसके पिछले जन्मों के अच्छे बुरे कर्म, उसके लोक व्यवहार ईर्ष्या द्वेष अहंकार रहित परोपकारी व परहित कार्य और जीवन शैली, धर्म कर्म, पाप पुण्य तथा उसके पूर्वार्जित पुण्य कर्मों के आधार पर, (जिसे शास्त्रीय भाषा या ज्योतिषीय भाषा में प्रारब्ध भी कहा जाता है) ही यह तय होता है कि वह जीव किसी योनि में, किस क्षेत्र में, किस माता-पिता की संतान होगा, किस परिवार में और कहां जन्म लेगा। अतः जन्म मृत्यु, आयु, शिक्षा, व्यवसाय और विवाह आदि तत्व निश्चित होने पर ही वह जीव गर्भ में आता है।
ज्योतिष शास्त्र के अनुसार जातक के भाग्य का लेखा-जोखा, जातक के जन्म के समय से निर्धारित होता है। ज्योतिष शास्त्र में जन्म स्थान, जन्म दिन, जन्म समय, योग, लग्न, नक्षत्र और राशि आदि इसके निर्धारक माने जाते हैं। किंतु समस्त ब्रजमंडल की लोक मान्यता अनुसार छठ पर्व की रात्रि को ही ब्रह्मा जी उस जातक के भाग्य का लेखा जोखा लिखते हैं। इसीलिए बालक को इन छः दिनों तक छठी पूजन से पूर्व उसकी माता से अलग नहीं किया जाता और बालक को माता के स्तनपान पर ही रखा जाता है। वह किसी भी समय कितना भी मां का दुग्धपान करें, जिससे कि वह भूखा रहकर दुखी या रोए नहीं। घर की अन्य बड़ी और अनुभवी माता बहनों के सानिध्य, सहयोग और देखरेख में जातक की स्वच्छता, सूखे गीले का ध्यान, उसके स्नान आदि व अन्य कार्यों की भली-प्रकार से देखभाल की जाती है। इन छः दिनों में यह विशेष ध्यान रखा जाता है कि बालक पर किसी बाहरी व्यक्ति की छाया न पड़े, न ही उसे किसी प्रकार की बुरी नज़र आदि लगे और किसी भी प्रकार की बुरी दुष्ट छाया व नजर आदि से वह दूर रहे। छठी पूजा पर्व से पहले बालक को घर से बाहर कहीं भी नहीं ले जाया जाता है। ब्रज की इस लोकमान्यता के पीछे एक आधार यह भी है कि इन छः दिनों के भीतर मां एवं उसकी संतान किसी भी बुरी छाया नज़र आदि से दूर रहकर जितने निरोग प्रसन्न और स्वस्थ रहतें हैं, उसी आधार पर ब्रह्माजी उस जातक का भाग्य लिखते हैं। छठी पूजने तक नवजात शिशु पर देवी देवताओं की कृपा बनी रहे, इसीलिए छठी पूजने से पहले बालक को किसी भी मंदिर में किसी भी देवी देवता को धारण कराई गई पोशाकों में से अथवा घर में विराजमान मंदिर में से किसी भी देवी देवताओं के पहने हुए पुराने वस्त्रों में से ही नवजात शिशु को वस्त्र बनाकर पहनाए जाते हैं।
छठी पर्व पर अपने पारिवारिक कुल परंपरा के अनुसार पितृों, देवी देवताओं का पूजन अर्चन करके भगवान को कढ़ी-चावल का भोग लगाया जाता है। इस दिन विशेषतया कढ़ी-चावल अवश्य ही बनायें जातें हैं। छठी पूजन वाले दिन बालक को नए पीले-वस्त्र ही पहनाए जाते हैं। इस दिन लाल आवरण वाली एक सुन्दर पुस्तिका और एक लाल कलम का पूजन आदि करके रात्रि में बालक के सिरहाने रख दी जाती है और ऐसा माना जाता है कि ब्रह्मा जी उसी लाल पुस्तिका में उसी लाल कलम से जातक का भाग्य लिखते हैं।
छठी पूजने के बाद ही बालक का नामकरण संस्कार किया जा सकता है। ब्रज मंडल में अधिकांशतः छठी पूजन पर्व के दिन ही जातक का नामकरण संस्कार कर दिया जाता है अथवा उसी दिन पत्रा-पंचाग आदि देखकर किसी शुभ दिन और मुहूर्त का निर्धारण किया जाता है। अथवा जन्म के 11वें दिन नामकरण संस्कार किया जाता है।
ब्रज मंडल में छठी पूजन परंपरा का उदगम :
एक लोकमान्यता के अनुसार छठी पूजन उत्सव का प्रचलन इसलिए प्रारंभ हुआ क्योंकि जब कान्हा छः दिन के थे, उस दिन कंस के द्वारा गोकुल में जन्मे सभी नवजात शिशुओं को मारने के लिए भेजी गई, एक पूतना नामक राक्षसी चुपचाप बालगोपाल के घर में घुसकर उनकों बाहर उठा ले गई और अपने स्तनों पर जहर लगाकर भगवान को विषयुक्त दुग्धपान कराना चाहा किंतु भगवान श्रीकृष्ण ने पूतना को मां का स्थान देकर उसका संहारकर अपने धाम पहुंचा दिया। उक्त घटना के बाद नंदबाबा और यशोदा मैया ने कान्हा को घर ले जाकर नौन-राई आदि से उनकीं नजर उतारी और यमुनाजल पवित्र कुंडों के जल दूध दही घी इत्र शहद और अन्य नाना प्रकार के द्रव्यों औषधियों से उनको स्नान और अभिषेक कराया। नए वस्त्र धारण कराये। देवी देवताओं का पूजन अर्चन किया। कढ़ी-चावल बनाकर देवी देवताओं का भोग लगाया। यह सब कार्यक्रम कंस के भय से लुकछिपकर सीमित रूप में किया गया था।
किन्तु श्रीराधाजी का छठी पूजन उत्सव बरसाने में हर्षोल्लास के साथ मनाया गया था। शास्त्रों में आता है कि श्रीराधाजी के जन्म के दो दिन बाद श्रीनंदरायजी, श्रीयशोदाजी और अपने लला कान्हा के साथ श्रीराधाजी के माता पिता श्रीवृषभानुजी और कीर्ति देवी को लाली के जन्म की बधाई देने बरसाने गए। वहां यशोदाजी ने कान्हा को लाडलीजी की बगल में लिटा दिया। इससे एक अत्यंत हर्षकारी और चमत्कारी घटना घटी क्योंकि श्रीराधाजी ने जन्म के बाद से ही दो दिनों तक, अपने नेत्र नहीं खोले थे और न ही उन्होंने स्तनपान और दुग्धपान किया था। अपनी पुत्री के नेत्र खुलने पर कीर्ति मैय्या हर्ष से झूम उठी और उन्होंने लाडलीजी को तुरंत अपने हृदय से लगा लिया और श्रीराधाजी ने अपना मुंह खोल कर दुग्धपान करने का प्रयास किया। अतः कीर्ति मैया ने भाव-विभोर होकर उन्हें तुरंत दुग्धपान करवाया। कथानुसार श्रीराधाजी ने अपने सनातन व शाश्वत प्रियतम के दर्शन किए बगैर न तो अपने नेत्र ही खोलें थे और न ही दुग्धपान आदि कुछ भी ग्रहण किया था। कान्हा को देखकर ही किशोरीजी ने सर्वप्रथम अपने नेत्र खोले और पहली बार दुग्धपान के रूप में कुछ ग्रहण किया था। अतः राधा जी का छठी पूजन फार्म उत्साह से मनाया गया था।
श्रीवृषभानुजी द्वारा इसी अत्यंत हर्ष के अवसर पर अपने परम मित्र श्रीनंदराय जी को (जोकि कंस के अत्याचारों आक्रमणों से अत्यंत त्रस्त और भयभीत थें उन्हें) गोकुल से पलायन कर बरसाने के अंतर्गत आने वाले एक स्थान शिवालिक पर्वत पर आकर बसने का आमंत्रण देकर अनुरोध किया था कि वे समस्त गोकुल वासियों सहित वहां आकर बस जाएं क्योंकि वह महर्षि शांडिल्य जी की तपस्थली थी और वहां उनके तपोबल और महर्षि शिव के द्वारा दिए गए आशीर्वाद के कारण कोई भी राक्षस उस स्थान पर नहीं आ सकता था। श्रीवृषभानुजी के अनुग्रह और प्रस्ताव पर श्रीनंदराय जी समस्त गोकुलवासियों सहित गोकुल से पलायन कर इस स्थान पर आकर बस गए। श्रीनंदराय जी द्वारा यहां आकर बसने से यह नंदगांव के नाम से प्रसिद्ध हुआ। नंदगांव आकर ही पहली बार श्रीकृष्ण का जन्मोत्सव हर्षोल्लास के साथ मनाया गया जोकि नंदोत्सव के रूप में आज भी प्रसिद्ध है।
छठी पूजन उत्सव की विधि :
छठी पूजन उत्सव के दिन भक्तिभाव से श्रीलाडलीजी व कान्हा जी का पंचोपचार अथवा षोडशोपचार पूजन अर्चन करें।
प्रात:काल शंख मे पंचामृत भरकर श्रीयुगल सरकार के श्रीविग्रहों का अभिषेक कराएं। इसके बाद शंख में गंगाजल, इत्र केवडा गुलाबजल केसर आदि से ठाकुर जी व किशोरी जी को शुद्ध स्नान कराएं। स्नान कराने के बाद भगवान को पीले रंग के वस्त्र पहनाएं और उनका पूरा श्रृंगार करें। मुकुट माला आदि नाना आभूषण पहनाएं। इत्र इत्यादि सुगंधित द्रव्य व सुगंधित सुंदर पुष्प आदि अर्पित करें।
दूध भात खीर माखन मिश्री और पान आदि का भोग लगाएं। इस दिन घर में कढ़ी-चावल का प्रसाद अवश्य बनाएं। श्रीराधाकृष्ण के छठी पूजन उत्सव पर कढ़ी चावल का प्रसाद भोग बनाने की बड़ी प्राचीन परंपरा है। ऐसा मी माना जाता है कि छठी महोत्सव पर श्रीयुगलसरकार को अपने घर की चाबी सौंप कर, उनसे प्रार्थना करनी चाहिए कि अब आप ही इस घर के स्वामी हैं, अब आप ही इस घर को संभालो सवारों। इससे घर पर सदैवश्रीयुगलसरकार का स्नेह आशीर्वाद और कृपा बनी रहती है। छठी पूजन उत्सव के दिन युगल संकीर्तन करें। श्री युगल महामंत्र का जाप करते रहें। श्रीराधा व श्रीकृष्ण चालीसा, श्रीराधा कृपा कटाक्ष, श्रीकृष्ण कृपा कटाक्ष, श्रीयुगलाष्टकम आदि मंगलकारी स्तोत्रों का पाठ करें। इस उपलक्ष पर हवन करना भी अति श्रेष्ठ माना जाता है। रात्रि में श्रीलाडलीलालू व श्रीश्यामसुंदरजू को दुग्ध सेवा अर्पित करने के पश्चात इत्र से युगल सरकार की मालिश करके पद पलोटन सेवा अर्पित करके लाला लाली को पालने में पधराकर विश्राम व शयन करवायें। छठी के दिन विधि विधान व श्रद्धा भक्ति से पूजा पाठ करने से श्रीराधाकृष्ण प्रसन्न होते हैं और भक्तों की सभी मनोकामनाएं पूर्ण करते हैं।
कुछ लोगों के मतानुसार श्रीराधाअष्टमी या श्रीराधा जी छठी पूजन उत्सव के दिन केवल राधाजी की पूजा अर्चना और अभिषेक इत्यादि करना चाहिए और श्रीकृष्णजन्माष्टमी और श्रीकृष्ण छठी पूजन उत्सव के दिन केवल ठाकुरजी की पूजा अर्चना और अभिषेक इत्यादि करना चाहिये। किंतु मेरा व अन्य अनेक वैष्णवों व ब्रज के अनेक रसिक संत जनों मानना यह है कि सदैव “युगल-उपासना” ही करनी चाहिए। जिस दिन ठाकुर जी का कोई उत्सव होता है तो उस दिन उनके साथ साथ प्रियाजी का भी पूजन अभिषेक किया जाए तो ठाकुर जी विशेष प्रसन्न होतें हैं और राधाजी के किसी भी उत्सव के दिन प्रियाजी के साथ साथ प्रियतम का भी पूजन अभिषेक किया जाए तो किशोरी जी अति प्रसन्न होतीं हैं। वस्तुतः श्रीराधाकृष्ण एक ही तत्व हैं। साधारण भाषा में वे एक प्राण और दो देह हैं। श्रीराधा, श्रीकृष्ण की आत्मा है, उनकी आल्हादिनी शक्ति है। जिस प्रकार से शक्ति के बिना शक्तिमान का कोई अस्तित्व नहीं होता। जलवर्षा अथवा दामिनी के बगैर श्यामघन की उपस्थिति और अस्तित्व का कोई अर्थ और शोभा नहीं है। ठीक उसी प्रकार श्रीराधा-कृष्ण एक दूसरे से ही पूर्ण होते हैं। हमने 26 अगस्त को श्रीराधाअष्टमी महोत्सव के अवसर पर भी श्रीराधा-कृष्ण एकात्मक तत्व विषय पर चर्चा की थी।
Comments
जय राधा माधव।।।
जय कुंज बिहारी।।।
श्री राधाषष्ठी पूजन के शुभ दिवस पर सभी को बधाई ऐवं हार्दिक शुभकामनाएं।
जय श्री राधे !
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