कार्तिक मास (1 नवंबर 2020, रविवार से 30 नवंबर 2020, सोमवार तक) पर विशेष आलेख
यूँ तो बारहों महीनों चौबीसों घंटों में से कभी भी किसी भी अवस्था में किया गया भगवान का भजन पूजन लाभकारी व कल्याणकारी ही होता है। गोस्वामी तुलसीदास जी कहते है कि :
भायँ कुभायँ अनख आलस हूँ। नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ॥
अर्थात् : श्रद्धा प्रेम भाव से, बगैर श्रद्धा भाव से, क्रोध से या आलस्य से, किसी तरह से भी नाम जपने से दसों दिशाओं में कल्याण ही होता है।
किन्तु सनातन धर्म में हिंदू धार्मिक और पौराणिक मान्यता के अनुसार साल भर के बारह महीनों में से वैशाख, श्रावण, कार्तिक और माघ ये चार महीने प्रभु भक्ति हेतु विशेष फलदायी मानें गये हैं। इन चार महीनों में से कार्तिक मास में भगवान विष्णु एवं भगवती लक्ष्मीजी (श्रीराधाकृष्ण) की पूजा अर्चना का विशेष महत्व है।
इस बार कार्तिक मास 1 नवंबर 2020 (रविवार, कार्तिक कृष्ण प्रतिपदा) से 30 नवंबर 2020 (सोमवार, कार्तिक पूर्णिमा) तक है। किन्तु कार्तिक माह के धार्मिक नियम और संयम 1 दिन पूर्व ही यानि कि शरद पूर्णिमा (आश्विन मास की पूर्णिमा) से प्रारंभ किए जाने का विधान है। अनेक वैष्णव लोग यह नियम और संयम 5 दिन पूर्व ही आश्विन शुक्ल एकादशी (पांपाकुशा एकादशी) से प्रारंभ कर देते हैं, क्योंकि शास्त्रों में कहा गया है कि “अधिकस्य अधिक फलम्” यानि कि ज्यादा करने का ज्यादा फायदा मिलता है।
कार्तिक महीने का महत्व
हिंदी पंचांग के अनुसार कार्तिक मास वर्ष का आठवां महीना होता है। कार्तिक मास को अत्यंत पावन मास की उपाधि दी गई है। भगवान श्रीकृष्ण को वनस्पतियों में तुलसी, पुण्यक्षेत्रों में द्वारिकापुरी, तिथियों में एकादशी और महीनों में कार्तिक विशेष प्रिय है :
“कृष्णप्रियो हि कार्तिक:, कार्तिक: कृष्णवल्लभ:” इसलिए कार्तिक मास को अत्यंत पवित्र और पुण्यदायक माना गया है। इसमें नक्षत्र-ग्रह योग, तिथि पर्व का क्रम मनुष्य की सभी आवश्यकताओं, जैसे-
धन, यश, ऐश्वर्य, लाभ, उत्तम स्वास्थ्य, पारिवारिक उन्नति, देव कृपा और आध्यात्मिक उत्थान बड़ी सरलता से प्रदान करने वाला है। स्कंद पुराण के अनुसार कार्तिक मास को लक्ष्मी प्रदाता सद्बुद्धि दायक एवं आरोग्य प्रदायक माना गया है। वर्ष के द्वादश मासों में से कार्तिक मास को ही धर्म अर्थ काम और मोक्ष को देने वाला माना गया है। ऐसी मान्यता है कि इस माह में भगवान विष्णु की महिमा में व्रत रखने पर रोगों से मुक्ति मिलती है तथा संकटों का निवारण होता है। कार्तिक मास में किया गया धार्मिक कार्य अनन्त गुणा फलदायी होता है। वैष्णवों के लिये ये महीना पूरे साल का सबसे पवित्र महीना होता है। इस माह में की गई थोड़ी उपासना से भी भगवान जल्द प्रसन्न हो जाते है। स्कंद पुराण के अनुसार, कार्तिक के माहात्म्य के बारे में नारायण ने ब्रह्मा को, ब्रह्मा ने नारद को और नारद ने महाराज पृथु को अवगत कराया था। कार्तिक महीने का माहात्म्य नारद पुराण, पद्म पुराण में भी मिलता है। व्रत और तप की दृष्टि से कार्तिक मास को परम कल्याणकारी, श्रेष्ठ और दुर्लभ कहा गया है। पवित्र दामोदर मास परम भगवान् कृष्ण को अत्यंत प्रिय है और इस महीने किया हुआ हरि नाम जप, पुण्य, दान, दीप दान कई गुना फल देता है। कार्तिक माह में पूर्ण निष्ठा और भक्ति भाव से पूजा अर्चना करने से मनोकामनाएं पूरी होती हैं। इस मास में सूर्य दक्षिणायन होने लगता है। धर्म शास्त्रों के अनुसार इस माह में स्नान ध्यान करके व्रत रखना विशेष फलदाई रहता है।
इस पवित्र महीने की शुरूआत शरद पूर्णिमा से होती है और अंत होता है कार्तिक पूर्णिमा या देव दीपावली से। शरद पूर्णिमा से ही भगवती लक्ष्मी और श्री राधा कृष्ण की महिमा में उनकी आराधना के साथ दीपदान एवं धार्मिक अनुष्ठान प्रारंभ हो जाते हैं।
इस माह में धर्म उत्सवों की पूरी श्रृंखला होती है। इस मास के मध्य करवा चौथ, अहोई अष्टमी, रमा एकादशी, गौवत्स द्वादशी, धनतेरस, रूप चर्तुदशी, दीपावली, गोवर्धन पूजा, भैया दूज, सौभाग्य पंचमी, छठ, गोपाष्टमी, आंवला नवमी, देव एकादशी, बैकुंठ चर्तुदशी, कार्तिक पूर्णिमा या देव दीपावली आदि पर्व उत्सवों को बड़े उत्साह श्रद्धा भक्ति और धूमधाम से मनाया जाता है। कार्तिक मास में शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि (देव प्रबोधिनी एकादशी) के दिन देवता जागृत होते हैं। इस देव प्रबोधिनी एकादशी का विशेष महत्व होता है। ऐसा माना जाता है कि इस दिन भगवान विष्णु चार महीने की निद्रा के पश्चात
उठते हैं। इस दिन के बाद से सारे मांगलिक कार्य शुरू किए जाते हैं। यह माह हर प्रकार के पूजन, भजन और जाप के लिए श्रेष्ठ है, तो ऐसे में अधिक से अधिक धार्मिक कार्यों में लगने का प्रयास करना चाहिए।
पद्म पुराण में उल्लेख है कि पूर्व जन्म में आजीवन एकादशी और कार्तिक व्रत का अनुष्ठान करने से ही सत्यभामा को कृष्ण की अर्द्धांगिनी होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था।
कार्तिक मास के लगभग पैतीस दिन मनुष्य को देव आराधना द्वारा स्वयं को पुष्ट करने के लिए प्रेरित करते हैं, इसलिए इस महीने को मोक्ष का द्वार अर्थात वैकुंठ मास भी कहा गया है।
इसी मास में शिव पुत्र कार्तिकेय ने तारकासुर राक्षस का वध किया था, इसलिए इस मास का नाम कार्तिक पड़ा, जो विजय देने वाला है।
इस मास में भगवान ने अनेक लीलाएँ की है। कार्तिक मास में भगवान श्रीकृष्ण ऊखल से बंधे थे, जिससे उनका नाम दामोदर पड़ गया इसीलिए कार्तिक मास को दामोदर मास भी कहा जाता है क्योंकि दामोदर भगवान कृष्ण का ही एक नाम है। कार्तिक मास में भगवान दामोदर यानी ओखल से बंधे हुए श्रीकृष्ण का पूजन करना चाहिए। दामोदर लीला को ही ऊखल बंधन लीला भी कहते हैं। यह भगवान् की अत्यंत सुन्दर लीला है। इसलिए इस कार्तिक माह में “श्री दामोदर अष्टक” का पाठ अवश्य करना चाहिए, यह विशेष पुण्य फल दायक होता है। भगवान का दामोदर नाम पड़ने के पीछे पुराणों में दो कथाएं मिलती हैं, जो इस प्रकार हैं :
दामोदर लीला : भविष्य पुराण की कथा के अनुसार, एक बार कार्तिक महीने में श्रीकृष्ण को श्रीराधा से कुंज में मिलने के लिए आने में विलंब हो गया। कहते हैं कि इससे राधा रूठ गईं और उन्होंने कृष्ण के पेट को लताओं की रस्सी बनाकर उससे बांध दियां। वास्तव में माता यशोदा ने किसी पर्व के कारण कन्हैया को घर से बाहर निकलने नहीं दिया था, जब श्रीराधा को इस वास्तविक वस्तुस्थिति का बोध हुआ, तो उन्होंने तत्काल श्रीकृष्ण को बंधनमुक्त कर दिया। संस्कृत में डोरी को ‘दाम’ कहते है और ‘उदर’ कहते हैं पेट को।
श्रीराधा ने श्रीकृष्ण के पेट को रस्सी से बाँधा इसलिए भगवान् श्रीकृष्ण का एक नाम दामोदर भी पड़ गया। इसलिए कार्तिक माह ‘श्रीराधा-दामोदर मास’ भी कहलाता है। दामोदर मास में श्रीराधा के विधिपूर्वक पूजन अर्चन से भगवान श्रीकृष्ण प्रसन्न होते हैं, क्योंकि श्रीराधा को प्रसन्न करने के सभी उपक्रम भगवान दामोदर को अत्यंत प्रिय हैं। इससे असीम कृपा मिलती है तथा जीवन में सुख समृद्धि और खुशहाली का मार्ग प्रशस्त होता है।
ऊखल बंधन लीला : अन्य पुराण की दूसरी कथा इस प्रकार है कि एक समय की बात है, नन्दरानी यशोदा जी स्वयं अपने लाला को माखन खिलाने के लिए दही मथने लगीं। मैया; कन्हैया की लीलाओं का स्मरण करतीं और गाती भी जाती थीं। इतने में कन्हैया अपनी मैया के पास आये और दही की मथनी पकड़ ली, उन्हें दही मथने से रोक दिया और मैया के हृदय में प्रेम को बढ़ाते हुए स्वयं माता की गोद में कूदकर चढ़ गए। वात्सल्य स्नेह की अधिकता के कारण मैया लाला को दूध पिलाने लगीं। पद्मगन्धा गाय का दूध चूल्हे पर रखा हुआ था, वो उबलने लग गया। दूध उफनता देखकर मैया जल्दी से दूध उतारने के लिये चली गयीं।
कान्हा दूसरे कक्ष में जाकर ऊपर छींकें में बंधी मटकी फोड़ कर माखन खाने लगे और बंदरों को भी खिलाने लग गये। सोचा- ये मेरे पूर्व जन्म के साथी हैं।
इतने में कुछ गोपियां कन्हैया का उल्लाहना लेकर आ गई कि तुम्हारा कन्हैया अपने सखाओं समेत हमारे यहां आकर मटकी फोड़कर सारा माखन चुरा ले जाता है। उनकी शिकायत से व्याकुल होकर मैया क्रोध में आ गई और छड़ी लेकर वहाँ पहुँची जहाँ कन्हैया ऊखल पर बैठकर बंदरों को माखन खिला रहे थे। जब मैया आयीं उन्होंने देखा मटकी टूटी पड़ी है, माखन फैला हुआ है। मैया समझ गयी कि यह सब मेरे लाला की ही करतूत है। कन्हैया ने देखा मैया छड़ी लेकर आ रही हैं, तो वह नन्दभवन के पीछे के दरवाजे से भागे।
आज बड़ी विलक्षण लीला हो रही है। कन्हैया
(भगवान्) डर के मारे आगे आगे और यशोदा मैय्या
(भक्त) पीछे पीछे छड़ी लेकर मारने के लिए भाग रहीं हैं। बड़े-बड़े योगी तपस्या के द्वारा अपने मन को अत्यन्त सूक्ष्म व शुद्ध बनाकर भी जिनमें प्रवेश नहीं करा पाते, उन्हीं भगवान को पकड़ने मारने के लिए यशोदाजी पीछे-पीछे दौड़ रहीं हैं, किन्तु श्रीकृष्ण हाथ नहीं आते। जब कन्हैया ने देखा मैया थक गयी, तब वो खड़े हो गये और मैया ने उन्हें पकड़ लिया। कन्हैया का हाथ पकड़कर वे उन्हें डराने धमकाने लगीं। उस समय लाला की झाँकी बड़ी विलक्षण हो रही थी। कन्हैया रोने और आँसू बहाने लग गये। यशोदा मैया ने देखा कि लाला बहुत डर गया है, मैया ने छड़ी फेंक दी और सोचा कि इसको एक बार रस्सी से बाँध देना चाहिये। मैया ने कन्हैया को बाँधने के लिए रस्सी ली और कन्हैया को बाँधने लग गयीं। कन्हैया ने फिर से लीला प्रारम्भ कर दी, रस्सी दो अंगुल छोटी पड़ गयी! तब मैया ने दूसरी रस्सी जोड़ी, वह भी दो अंगुल छोटी पड़ गयी। इस प्रकार सारे घर भर की रस्सी जोड़ दी, फिर भी कन्हैया को न बाँध सकी और रस्सी छोटी पड़ती तो केवल दो अगुंल। कन्हैया ने देखा मैया बहुत थक गयी हैं; तब वे स्वयं ही माँ के बंधन में बंध गये।
मैया कन्हैया को ऊखल से बाँधकर अपने काम में लग गई। नन्द भवन के आंगन में यमलार्जुन के दो वृक्ष थे, कन्हैया ऊखल को खीचतें हुए नन्दभवन के बाहर आ गये। जहाँ उनका वह ऊखल दोनों वृक्षों के बीच में फंस गया और फंसे हुए कल को निकालने के लिए रस्सी को जहाँ जोर से खीचा, दोनों वृक्ष गिर पड़े और भयानक आवाज हुई। उनमें से दो दिव्य पुरुष प्रकट हो गये।
दामोदर लीला के आध्यात्मिक रहस्य की सरल शिक्षा
यशोदा-नन्द नन्दन भगवान् अनन्य प्रेमी भक्तों के लिए जितने सुलभ हैं, उतने ही देहाभिमानी, कर्मकांडी एवं तपस्वियों के लिए दुर्लभ हैं। वैसे तो श्रीकृष्ण परम स्वतंत्र हैं। ब्रह्मा, इंद्र आदि के साथ सम्पूर्ण जगत इनके वश में है। फिर भी इस तरह बंधकर, उन्होंने संसार को यह शिक्षा दी कि मैं प्रेमी भक्तों के वश में हूँ। दो अँगुल रस्सी छोटी पड़ने का अभिप्राय (अर्थ) यह है कि भगवान् दिखाना चाहते हैं- जब किसी मनुष्य के मन में ईर्ष्या और अहंकार (दो अंगुल) होते हैं और वो मुझे पाने की अभिलाषा करता है, तब मैं उसे नहीं मिलता या उससे नहीं बँधता। परंतु जब उसके मन से इच्छा और अहंकार निकल जाते हैं, तब मैं उस पर कृपा करता हूँ और उसे प्राप्त हो जाता हूं अथवा उसके बन्धन में बँध जाता हूँ। अर्थात यदि भजन करने वाले भक्त में निष्काम अभिलाषा हो और निर्मल मन हो, तब ही भगवान् स्वयं कृपा करके भक्त के प्रेमपाश में बंधते है।
यमलार्जुन का उद्धार
नंदभवन के आंगन के दो वृक्षों उखाड़ने के माध्यम से भगवान श्रीकृष्ण की यह एक उद्धार लीला थी। जब कन्हैया ने देखा कि मुझको ऊखल से बांधने के बाद मैया अपना काम कर रही है, तो मैं भी अपना काम कर लूँ। नंदभवन के आंगन के यह दोनों वृक्ष नलकूबर और मणिग्रीव नामक यक्ष थे, जो बड़े उपद्रवी थे और नारद जी के श्राप से वृक्ष बन गये थे, किंतु कुछ अपने पुण्य कर्मों से इनको नंदभवन के बाहर आँगन में वृक्ष बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। भगवान श्रीकृष्ण-बलराम की लीलाओं का दर्शन करते हुए इनकी बुद्धि शुद्ध हो गयी। अब श्रीकृष्ण को उनका उद्धार करना था। अतः नलकूबर और मणिग्रीव को अपने वृक्ष अवतार से मुक्ति मिल गई। उन्होंने श्री कृष्ण से वरदान माँगा- हे प्रभु! आज के बाद हमारी वाणी से अगर कुछ निकले तो आपका नाम निकले या आपकी कथा निकले, इधर उधर की बातों से समय व्यर्थ न हो। कानों से हम कुछ सुने तो आपका गुणगान, आपका कीर्तन, आपकी कथा। हाथों से अगर कोई काम करे तो आपकी सेवा, मंदिर सेवा, संत सेवा, ठाकुर सेवा हो, ये है हाथों का उपयोग। मन हमेशा आपका चिंतन करे। हमारा मस्तक सारे लोगो को प्रणाम करने के लिये झुकता रहे, क्योंकि सारे लोगों में आप ही विराजमान हैं। हमारी दृष्टि सदा आपके दर्शन करे या भगवद्भक्त के दर्शन करे, ऐसा हमे वरदान दीजिए। भगवान ने उनको मनोवांछित वरदान दिया और वे दोनों भगवान के धाम को चले गये।
कार्तिक मास के नियम
पद्मपुराण के अनुसार, रात्रि में भगवान विष्णु के समीप जागरण, प्रात: काल स्नान करने, तुलसी की सेवा, उद्यापन और दीपदान ये कार्तिक मास के विशेष फलदाई नियम हैं। जिन्हें करने से शुभ फल मिलते हैं और सुख-समृद्धि सहित हर मनोकामना पूरी होती है। ये नियम इस प्रकार हैं –
कार्तिक स्नान – इस महीने में स्नान का बहुत महत्व होता है तथा इसे कार्तिक स्नान की संज्ञा दी जाती है। यह स्नान सूर्योदय से पूर्व किया जाता है। ग॔गा या किसी भी पवित्र नदियों सरोवरों कुंडों में स्नान का खास महत्व होता है। इस मास में वारुण स्नान, यानि कि जलाशय में स्नान का विशेष महत्व है। तीर्थ-स्नान का भी असीम महत्व है। वैष्णव भक्तगण ब्रज में इस माह के दौरान श्रीराधाकुंड में स्नान और परिक्रमा करते हैं। अतः जहां तक संभव हो सके इस माह में एक बार किसी नदी सरोवर या कुंड में ब्रह्म स्नान अवश्य स्नान करना चाहिए। यदि नदियों सरोवर में स्नान संभव न हो तो, स्नान जल में गंगाजल या अन्य किसी भी पवित्र नदी सरोवर या कुंड का जल मिलाकर अथवा पवित्र नदियों सरोवर कुंडों की मानसिक भावना करके भी स्नान किया जाना चाहिये। स्नान करते समय निम्न मंत्र का उच्चारण करना चाहिए, मान्यता है कि इस स्नान मंत्र का जाप करने से तीर्थों में स्नान का पुण्य मिल जाता है :
“ॐ गंगे च यमुने गोदावरि चैव सरस्वति। नर्मदे सिन्धु कावेरि जलऽस्मिन्सन्निधिं कुरु।।”
इस मंत्र का अर्थ ये है कि हे गंगा, यमुना, गोदावरी, सरस्वती, नर्मदा, सिंधु, कावेरी नदियों! मेरे स्नान करने के इस जल में आप सभी पधारिए।
जो स्नान ब्रह्ममुहूर्त में भगवान का चिंतन करते हुए किया जाता है, उसे ब्रह्म स्नान कहते हैं। सूर्योदय से पूर्व देवनदियों में अथवा उनका स्मरण करते हुए जो स्नान किया जाता है, उसे देव स्नान कहते हैं। सुबह सुबह जब आकाश में तारे दिखाई दे रहे हों तब जो स्नान किया जाता है, उसे ऋषि स्नान कहते हैं। शास्त्रों के अनुसार हमें कार्तिक मास में ब्रह्म स्नान, देव स्नान या ऋषि स्नान ही करना चाहिए। यहीं सर्वश्रेष्ठ स्नान हैं। कार्तिक मास नियम संयम लेने वाले अधिकांश व्यक्ति ब्रह्ममूहुर्त में ही स्नान करते हैं। कार्तिक स्नान विवाहित महिलाओं तथा कुंवारी कन्याओं दोनों के लिए फलदायी होता है। काले तिल व आंवले का चूर्ण लगाकर स्नान करने से समस्त पापों का शमन होता है। इस मास में नियम पूर्वक संकल्प के साथ व्रत रखकर गंगा स्नान करके दान करने से तीर्थयात्रा के समान फल की प्राप्ति मानी गई है। ब्रह्म मुहूर्त में उठकर कमर तक गंगा किसी भी पवित्र नदी आदि में खड़े होकर पूजन करने से विशेष पुण्य मिलता है। इस मास के दौरान विधिपूर्वक स्नान ध्यान पूजन के साथ साथ भगवद् कथा श्रवण और संकीर्तन किया जाना भी अत्यंत पुण्यकारी होता है।
दीपदान – धर्म शास्त्रों के अनुसार, कार्तिक मास में दीपदान करना बताया गया है। दीप दान का अर्थ यहां दीप प्रज्जवलित कर भगवान का पूजन अर्चन करने से है। इस महीने में देवालयों, पवित्र नदियों पोखर तालाब आदि, तुलसी और आंवले के वृक्ष के अलावा आकाश में भी दीप-दान करने का विशेष महत्व है। इसमें यमदेव को प्रसन्न करने के लिए आकाश दीप प्रज्वलित किए जाते हैं। इससे पुण्य की प्राप्ति होती है।
तुलसी पूजा – इस महीने में तुलसी पूजन करने तथा सेवन करने का विशेष महत्व बताया गया है। वैसे तो हर मास में तुलसी का सेवन व आराधना करना श्रेयस्कर होता है, लेकिन कार्तिक में तुलसी पूजा का महत्व कई गुना माना गया है। नित्य तुलसी को जल देकर उस स्थान पर दीप जलाना चाहिए। तुलसीजी भगवान विष्णु की प्रिया हैं। तुलसी की पूजा से विष्णु विशेष प्रसन्न होते हैं। इसलिए श्रद्धालु गण विशेष रूप से तुलसी जी की आराधना करते हैं। निम्न मंत्रोच्चार कर तुलसी की पूजा की जाती है :
“महाप्रसाद जननी, सर्व सौभाग्यवर्धिनी, आधि व्याधि हरा नित्यं, तुलसी त्वं नमोस्तुते।।”
अथवा
“देवी त्वं निर्मिता पूर्वमर्चितासि मुनीश्वरैः, नमो नमस्ते तुलसी पापं हर हरिप्रिये।।”
तुलसी के पौधे के पास सुबह-शाम दीया भी जलाया जाता है। तुलसी अर्चना से न केवल घर के रोग, दुख दूर होते हैं बल्कि अर्थ, धर्म, काम तथा मोक्ष की भी प्राप्ति होती है। तुलसी के सेवन से शरीर निरोगी रहता है। अगर तुलसी का पौधा घर के बाहर होता है तो किसी भी प्रकार का रोग तथा व्याधि घर में प्रवेश नहीं कर पाते हैं। तुलसी के पौधे का कार्तिक महीने में दान भी दिया जाता है। कार्तिक शुक्ल एकादशी को तुलसी शालिग्राम विवाह भी होता है।
आंवले की पूजा – कार्तिक मास में एक माह तक आंवले के वृक्ष का पूजन करना फलदाई माना गया है। इस महीने में स्नान के बाद आंवले तथा सूर्य को जल अर्पित किया जाता है तथा पूजा-अर्चना की जाती है। आंवले के पौधे और आंवले के फल का कार्तिक महीने में दान भी दिया जाता है। कार्तिक शुक्ल नवमी को आंवला नवमी भी होती है।
दान पुण्य – इस महीने में दान करना भी लाभकारी होता है। ब्राह्मण भोज, गाय दान, तुलसी दान, आंवला दान तथा अन्न दान का विशेष महत्व होता है।
कार्तिक माह के संयम, सावधानियाँ और निषेध कार्य
संयम रखें – कार्तिक मास का व्रत करने वालों को चाहिए कि वह तपस्वियों के समान व्यवहार करें अर्थात कम बोले, किसी की निंदा या विवाद न करें, मन पर संयम रखें आदि। कार्तिक मास में आलस्य का त्याग कर मनुष्य को ब्रह्ममुहूर्त में जागना चाहिए।
ध्यान रखें कि कार्तिक मास में साफ-सुथरे धुले हुए स्वच्छ वस्त्र ही हमेशा धारण करने चाहिये।
ब्रह्मचर्य का पालन – कार्तिक मास में व्यक्ति को ब्रह्मचर्य का पालन अति आवश्यक बताया गया है। इसका पालन नहीं करने पर पति-पत्नी को दोष लगता है और इसके अशुभ फल भी प्राप्त होते हैं।
भूमि पर शयन – भूमि पर सोना कार्तिक मास का प्रमुख संयम माना गया है। भूमि पर सोने से मन में सात्विकता का भाव आता है तथा अन्य विकार भी समाप्त हो जाते हैं। इन दिनों उपासक को फर्श पर सोना चाहिए। यदि यह संभव ना हो तो कम से कम आरामदायक और गद्देदार बिस्तर का त्याग कर देना चाहिए।
तेल मालिश वर्जित – कार्तिक मास में स्नान व्रत करने वालों को शरीर में तेल नहीं लगाना चाहिए। कार्तिक महीने में केवल कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी (नरक चतुर्दशी) के दिन ही तेल लगाया जा सकता है। मास के अन्य दिनों में तेल लगाना वर्जित है, खासतौर से कार्तिक मास की द्वितीया, सप्तमी, नवमी, दशमी, त्रयोदशी से अमावस्या तिथि के दिन तिल व आंवले का प्रयोग नहीं करना चाहिए।
दलहन (दालों) खाना निषेध – कार्तिक महीने में द्विदलन अर्थात उड़द, मूंग, मसूर, चना, मटर, राई आदि नहीं खाना चाहिए। दाल, लौकी, गाजर और बैगन के साथ ही बासी अन्न ग्रहण नहीं करना चाहिए।
कार्तिक मास में मनुष्य मांसाहार, मद्यपान, सिगरेट, प्याज, लहसुन, तेल और बैंगन आदि खाने से भी परहेज करना चाहिए। कार्तिक मास में व्रतकर्ता व साधक को अपने परिवार के अतिरिक्त अन्य किसी दूसरे का कुछ भी ग्रहण करने से परहेज करना चाहिए।
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