श्री गुरू महिमा

मनोज शर्मा

भारतीय सभ्यता संस्कृति के पांच आधार स्तम्भ हैं :  गंगा, गाय, गीता, गायत्री और गुरू। इनके बिना भारतीय संस्कृति की कल्पना भी नहीं की जा सकती।

सात समुद्र की मसि करूँ, लेखनी सब बनराय।

धरती सब कागद करूँ, गुरु गुन लिखा न जाय।।

कबीरदासजी ने कहा है कि ‘सातों समुद्रों के पानी को स्याही, सारे जंगलों के वृक्षों को कलम और सब पृथ्वी को कागज बना कर लिखने पर भी गुरु के गुण और महिमा को नहीं लिखा जा सकता है।’ अर्थात गुरू की महिमा का बखान करने में प्रकृति भी असमर्थ है।

बंदउं गुरु पदकंज कृपासिंधु नररूप हरि।

महामोह तम पुंज जासु बचन रबि कर निकर॥

तुलसीदासजी कहते है कि मैं उन गुरु महाराज के चरणकमल की वंदना करता हूं, जो कृपा के समुद्र और नररूप में श्रीहरि ही हैं और जिनके वचन महामोहरूपी घने अंधकार का नाश करने के लिए सूर्यकिरणों के समूह हैं।

गुरुर्ब्रह्मा ग्रुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः।

गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः।।

अर्थात : गुरु ब्रह्मा है, गुरु विष्णु है, गुरु ही शंकर है; गुरु ही साक्षात् परब्रह्म है; अतः उन सद्गुरु को प्रणाम है।

गुरु को ब्रह्मा कहा गया क्योंकि वे शिष्य को बनातें है, नव जन्म देतें हैं। गुरु विष्णु भी हैं क्योंकि वह शिष्य की रक्षा करते हैं। गुरु साक्षात महेश्वर भी हैं क्योंकि वह शिष्य के सभी दोषों का संहार भी करते हैं।

गुकारस्त्वन्धकारस्तु रुकार स्तेज उच्यते।

अन्धकार निरोधत्वात् गुरुरित्यभिधीयते।।

अर्थात : ‘गु’ कार यानि अंधकार, और ‘रु’ कार याने तेज; जो अंधकार का (ज्ञान का प्रकाश देकर) निरोध करता है, अर्थात अज्ञान रूपी अंधकार को हटाकर ज्ञान रूपी प्रकाश की ओर ले जाने वाले को ‘गुरु’ कहा जाता है।

यानि गुरू शब्द दो मातृका अक्षरों के संयोग से बना है; ’ग’ और ‘र’। ‘ग’ अक्षर जहाँ अंधकार का प्रतीक है, वहीं ‘र’ अक्षर अग्नि तत्व का प्रतीक है। और इन दोनों वर्णों में ‘उ’ कार लग कर गुरू शब्द की रचना होती है। अर्थात गुरू शब्द तीन वर्णों के मेल से बना है – अ, उ तथा म। ‘अ’ सृष्टिकर्ता ब्रह्मा का प्रतीक है, तो ‘उ’ पालनकर्ता विष्णु का तथा ‘म’ संहारकर्ता रुद्र का।

अखण्डमण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम्।

तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः।।

अर्थात : जो इस चराचर जगत में व्याप्त हैं, उन पूर्ण गुरू के चरणों में मेरा साक्षात नमन् है।

अथवा : जो अखंड है, सकल ब्रहमांड में समाया हुआ है, चर-अचर में तरंगित है, उस ईश्वर के तत्व रूप को मेरे भीतर प्रकट करनें वाले श्रीगुरूदेव के चरणों में मेरा साक्षात नमन् है।

अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जन शलाकया।

चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः।।

अर्थात : अज्ञानरुपी अंधकार में डूबें मुझ अंधे (अज्ञानी) की, जिसने ज्ञानांजनरुपी शलाका से, मेरी आँखें (ज्ञानचक्षु) खोली, उन गुरु को मेरा नमस्कार।

शिव की भांति ही मनुष्य के सूक्ष्म शरीर में भी एक तीसरा नेत्र ‘ज्ञान चक्षु’ होता है, जिसके द्वारा अंधकार असत् और प्रकाश सत् का अन्तर समझ आता है। जिसके द्वारा कण-कण में व्याप्त ज्योति स्वरूप एवं सर्वव्यापक उस ईश्वर के दर्शन होते है। लेकिन वह अन्तर्चक्षु तभी खुलता है जब गुरुकृपा होती है।

वैसे तो गुरु सबके ऊपर ही अनवरत अपनी कृपा बरसाते हैं, लेकिन जो गुरु कृपा पाने के योग्य होते हैं, गुरु महिमा के महत्व को भलीभांति समझते है, उनके ही यह दिव्य नेत्र प्रभावी होते हैं। इस दिव्य चक्षु के खुलने से शिष्य के जीवन में प्रभात का उदय होता है।

सद्गुरु शिष्य को बाहर से नहीं अपितु भीतर से जोड़ते हैं, क्योंकि अन्दर ही वह प्रकाश व्यापत है, जिसमें जीवन की सार्थकता है, जीवन की गरिमा है, जिसके लिए हमें यह देव दुर्लभ मानव शरीर व जीवन प्राप्त हुआ है। भीतर के प्रकाश से ही बाह्य वास्तविकता ज्ञातव्य होती है।

जो ईश्वरीय ज्ञानामृत कोष से ध्वल प्रकाश की किरणें लेकर अपने शिष्यों के बीच स्नेह पूर्वक बांटता है, वही सद्गुरु होता है। दुःख और संकटों के अंधकार में जो सन्मार्ग दिखाता है, वही सद्गुरु होता है। जो संतापों से तपते हुए चित्त में शान्ति और शीतलता के मेघ बनकर बरसता है, वही सद्गुरु है। जो सुगन्धित बयार बनकर शिष्य समुदाय के मन को महकाता है, हर्षाता है, सरसाता है, वही सद्गुरु है।

सद्गुरु शिष्य के अन्दर कलाएं विकसित करता है। उसकी सुप्त शक्तियों को जागृत करता है। गुरु शिष्य को पूर्णिमा के चंद्रमा की भांति प्रकाशमान कर देते हैं। जिस प्रकार चन्द्रमा की कलाएं बढ़ती हैं, उसी प्रकार शिष्य भी आत्मिक और आध्यात्मिक उन्नति के शिखर पर अनवरत अग्रसर रहे, यह शुभ चिन्तन शिष्य के विषय में एक सद्गुरु का ही होता है। गुरु कृपा से जब शिष्य चंद्रमा की भांति प्रकाशमान होकर आध्यात्म रूपी आकाश में आच्छादित होने को अग्रसर होता है तो गुरू की यह मंगलाकांक्षा होती है कि शिष्य कृष्णपक्ष के चंद्रमा की भांति कभी भी अवनति को प्राप्त न हो। अर्थात उसमें ईर्ष्या व अहंकार रूपी अंधकार न छा जाए, उसकी उन्नति में कहीं अवरोध न आ जाए, वह निरंतर उन्नति को प्राप्त करता रहे। अतः वे शिष्यों की आंतरिक व मानसिक त्रुटियों दृष्टि रखते हुये यदा कदा किसी परीक्षा या क्रोध रूपी कृपा से उसका मार्जन करते रहते हैं। शिष्यों को सन्मार्ग की ओर प्रेरित करते हैं।

गुरू तो उन कुम्हार की तरह होते है, जिस तरह कुम्हार घड़े को सुन्दर बनाने के लिए बाहर ऊपर से थाप मारते है प्रहार करतें हैं किन्तु मटके के अन्दर हाथ डालकर भीतर से सहारा दिये रहते हैं। ठीक उसी प्रकार शिष्य को कठोर अनुशासन में रखकर अन्तर से प्रेम भावना रखते हुए शिष्य की बुराइयों को दूर करके संसार में सम्माननीय बनाते हैं।

‘गुरू कुम्हार शिष कुंभ है, गढि गढि काढ़ै खोट।

अन्तर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट।।’

अज्ञानता जहाँ मृत्यु का द्योतक है, वहीं ज्ञान जीवन का। हमारे वेदों में भी कहा गया है कि : ‘असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योतिर्गम्य। मृत्योर्मा अमृतगम्य।’

अर्थात : हे परमपिता परमेश्वर! हमें असत्य से सत्य की ओर, अंधकार से प्रकाश की ओर तथा मृत्यु से जीवन (अमृत प्राप्ति) की ओर ले चलें।

कबीरदासजी ने गुरू की महिमा को ईश्वर से भी बढ़कर कहा है :

‘गुरू गोविंद दोनों खड़े, काके लागूं पांव।

बलिहारी गुरू आपने, गोविंद दियो बताय।।’,

एवं

‘हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहिं ठौर॥’

अर्थात् : भगवान के रूठने पर तो गुरू की शरण रक्षा कर सकती है किंतु गुरू के रूठने पर कहीं भी शरण मिलना सम्भव नहीं है।

शास्त्रों में भी कहा गया है कि :  

“शिवे रुष्टौ गुरू त्राता, गुरू रुष्टौ न कष्चन्।”

इसीलिये कबीरदास जी तो यह शीष देकर भी गुरू प्राप्ति करने को महंगा सौदा नहीं कहा है :

‘यह तन विष की बेलरी, गुरू अमृत की खान।

शीष दियो जो गुरू मिलो, तो भी सस्ता जान।।’

सद्गुरु लोक कल्याण के लिए इस धरती पर साक्षात भगवान का अवतार ही है, भगवान तो कभी कभी किसी कारण विशेष से प्रकट होतें हैं। त्रोलोक्यपति भी गुरू का गुणनान करते है।

ग्रंथों में कहा गया है कि

‘राम कृष्ण सबसे बड़ा उनहूँ तो गुरु कीन्ह।

तीन लोक के वे धनी गुरु आज्ञा आधीन॥’

जिस प्रकार बाजार में अनेक शैक्षणिक पुस्तकें उपलब्ध होती हैं, लेकिन क्यों किसी शिक्षक द्वारा व्याख्या की आवश्यक्ता पड़ती है। जब बच्चा पढ़ने के लिए बैठता है, तो शिक्षक उसे हाथ पकड़कर लिखने-पढ़ने के लिए सिखाता है। बच्चा बार-बार गलतियाँ करता है और शिक्षक उन गलतियों को सुधारते हैं। ठीक उसी प्रकार जिस व्यक्ति का कोई गुरू नहीं होता, आध्यात्मिक जगत में वह असहाय अनाथ की भांति ही होता है। आध्यात्मिक जगत में बिना किसी गुरू के उचित मार्गदर्शन के अभाव में अग्रसर होना अत्यंत कठिन है। इसलिए गुरू के संबंध में कहा गया है कि :

‘गुरू कृपा ही केवलम्’ अथवा

‘ध्यानमूलं गुरुर्मूर्ति पूजामूलं गुरोः पदम्।

मंत्रमूलं गुरोर्वाक्यं मोक्षमूलं गुरोः कृपा।।’

यूं तो संसार के प्रत्येक सभ्यता में धर्म किसी न किसी रूप में विद्यमान है, किन्तु भारत भूमि देव भूमि है और यहां का कण-कण देवमाय और गुरूमय है। यहां धर्म और आध्यात्म मनुष्य के प्राण और सार है।

आज संपूर्ण विश्व में भारत के संत दिव्य ज्ञान फैला रहे हैं। उपनिषदों के ज्ञान को सारा विश्व नमन् कर रहा है, तो गीता के कर्मयोग के सिद्धांत को भी पश्चिमी देश अपना रहे हैं। आज विदेशी भूमि पर मठ, आश्रमों, मंदिरों और गुरुद्वारों का निर्माण हो रहा है।

हमारे धर्म ग्रंथों में एक नियम यह दिया गया है कि अगर किसी व्यकित को किसी उच्चकोटि की गुरू की प्राप्ति न हो रही हो, तो ऐसी दशा में वह किसी भी देवी-देवता जैसे कि शिव पार्वती, विष्णु, लक्ष्मी, सीता राम, राधा कृष्ण, भगवती दुर्गा, सूर्य, गणेश, हनुमान या फिर अन्य किसी भी देवी-देवता में से किसी एक गुरू मानकर धारण करके उनके किसी भी एक मंत्र का जप करें अथवा उनका पंचोपचार या षोडषोपचार पूजन करे। गोस्वामी तुलसीदास ने भी श्री हनुमान जी को ही अपना परम आध्यात्मिक गुरू माना था। उन्होंने लिखा कहा भी है कि :

‘जय जय जय हनुमान गुसाईं।

कृपा करहु गुरूदेव की नाईं।।’

गुरू तो वह प्रबल शक्ति है, जो सामान्य से सामान्य शिष्य को भी असामान्य बना दे। श्री रामकृष्ण परमहंस जैसे गुरू ने साधारण युवक नरेंद्र को स्वामी विवेकानंद बना दिया। स्वामी रामानंद जी ने मामूली निर्धन जुलाहे को संत कबीरदास बना दिया।

मेरे परमपूज्य गुरूदेव श्रीपाद बाबा जी महाराज की यदि मेरे ऊपर उनकी ‘गुरू-कृपा’ न होती तो मै आज जो कुछ भी थोडा बहुत अपने जीवन लक्ष्य को प्राप्त करने में प्रयासरत हूं, क्या यह सब संभव था, कतई नहीं। मैंने बस यह जाना है कि “गुरू मिले सो हरि मिले।”

‘हूँ तो असवार सदा खर कौं, तेरी कृपा ने गयन्द चढ़ाऔ।’

जो पूर्ण श्रद्धा विश्वास से गुरू चरणानुरागी और उनका वचनानुगामी होता है, वह गुरू सेवा से कृत कृत हो धन्य हो जाता है और ब्रह्मनाद में रमण कर अपने सद्गुरु की परमब्रह्माण्डीय शक्ति के द्वारा अपने जीवन के परम लक्ष्य को प्राप्त कर भगवान के परम धाम को प्राप्त कर उनके चरणाश्रय में विश्रांति पाकर उनकी नित्य लीला मंडल में प्रवेश पा जाता है।

दृष्टान्तो नैव दृष्टस्त्रिभुवनजठरे सद्गुरोर्ज्ञानदातुः स्पर्शश्चेत्तत्र कलप्यः स नयति यदहो स्वहृतामश्मसारम्।

न स्पर्शत्वं तथापि श्रितचरगुणयुगे सद्गुरुः स्वीयशिष्ये स्वीयं साम्यं विधते भवति निरुपमस्तेवालौकिकोऽपि।।

अर्थात् : तीनों लोक, स्वर्ग, पृथ्वी, पाताल में ज्ञान देने वाले गुरु के लिए कोई उपमा नहीं दिखाई देती। जो गुरु को पारसमणि के जैसा मानते है, तो वह ठीक नहीं है, कारण पारसमणि केवल लोहे को सोना बनाती है, पर स्वयं जैसा नहीं बनाती! सद्गुरु तो अपने चरणों का आश्रय लेनेवाले शिष्य को अपने जैसा बना देता है; इसलिए गुरुदेव के लिए कोई उपमा नहि है, गुरु तो अलौकिक है।


मनोज शर्मा : पत्रकार, लेखक, ब्लॉगर, आध्यात्मिक चिंतक, मुद्रक व प्रकाशक, सांस्कृतिक और सामाजिक कार्यकर्ता। ईमेल : ms.chaardishayen@gmail.com | मोबाइल : 9810297155, 9711155148| पंडित हरिदत्त शर्मा निवास, सी-42, गुलमोहर पार्क, नई दिल्ली-110049

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