(इस विधि से आप स्वयं अपने पितरों का श्राद्ध व तर्पण कर सकते हैं)
यह एक सामान्य तर्पण विधि है जिससे साधारणजन भी कर सकें और श्राद्ध कर्म का लोप न हो।
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हमारे यहां सत्य सनातन हिंदू धर्म व संस्कृति मेंi पितृपक्ष में तर्पण और श्राद्धकर्म करने की परंपरा अत्यंत प्राचीन काल से चली आ रही है इसके अनेकों धार्मिक पौराणिक और ऐतिहासिक संदर्भ प्राप्त होते हैं। रामायण में उल्लेखित है कि जब भगवान राम को वनवास काल में यह सूचना प्राप्त हुई कि उनके पिता दशरथ जी अब नहीं रहे, तो उन्होंने सीताजी और छोटे भाई लक्ष्मण सहित उनका श्रद्धा भक्ति भाव से पूजन कर श्राद्ध व तर्पण किया था। महाभारत में भी वर्णन आता है कि शर-शैय्या पर घायल अवस्था और मरणासन्न अवस्था में भीष्मपिता ने पांडवों को श्रद्धा कर्म की महत्वता और आवश्यकता समझाई थी। तब से श्राद्ध तर्पण के समय भीष्म पितामह को भी तर्पण जलांजलि देने की परंपरा चली आ रही है।
सनातन हिंदू पंचांग के अनुसार अश्विन मास के कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा से अश्विन अमावस्या तक के 15 दिनों में अपने बुजुर्गों के प्रति श्रद्धा भक्ति भाव और आभार प्रकट करने के लिए उनका पूजन अर्चन और तर्पण किया जाता है, इसीलिए इस पखवाड़े को पितृपक्ष, श्राद्धपक्ष अथवा महालय कहा जाता है। पूर्णिमा का श्राद्ध महालय अमावस्या (अश्विन अमावस्या) को किया जाता है। अतः सनातन हिंदू धर्म में यह 15 दिन अपने पूर्वजों की प्रसन्नता उनकी आत्मा की शांति और उद्धार के लिए समर्पित किए गए हैं। जिससे प्रसन्न होकर हमारे बुजुर्ग पितृ संपूर्ण परिवार और आने वाले वंशजों को भी सुख शांति उन्नति समृद्धि स्वास्थ्य और आरोग्यता का आशीर्वाद प्रदान करते हैं।
श्राद्धपक्ष के अंतिम दिन यानी कि महालय अमावस्या को सभी पितरों का, ज्ञात अज्ञात पितरों और जिन बुजुर्गों की मृत्यु का दिन किन्ही कारणों से ज्ञात न हो, यानी की सभी पितरों का अश्विन अमावस्या के दिन विशेष तर्पण और पिंडदान आदि किया जाता है। इसीलिए अश्विन अमावस्या को “सर्व पितृ अमावस्या” भी कहा जाता है।
श्राद्ध (श्रद्धाकर्म) की तिथि का निर्धारण उस व्यक्ति के निधन की तिथि से किया जाता है यानी की जिस तिथि को व्यक्ति की मृत्यु होती है इस तिथि को श्रद्धाकर्म किया जाता है। कई परिवारों में परिवार की परंपरा अनुसार मुखाग्नि/ क्रियाकर्म के दिन से भी श्रद्धा की तिथि निर्धारित की जाती है। जिन परिवारों में किसी सगे संबंधी बुजुर्गों की मृत्यु अथवा क्रियाकर्म पूर्णिमा को होता है, प्रायः उन अनेक सभी
परिवारों में पारिवारिक परंपरा के अनुसार यह पितृपक्ष 16 दिनों यानी कि भाद्रपद पूर्णिमा से अश्विन अवामस्या तक भी माना जाता है।
पितृपक्ष में आश्विन कृष्ण प्रतिपदा तिथि से ही तर्पण किया जाता है। तर्पण में देवताओं, ऋषियों और पितरों को जो जलांजलि देते हैं, उसे तर्पण कहा जाता है। इनमें तर्पण के अलग-अलग नियम है।
यद्यपि प्रायः अनेक ग्रंथों में तर्पण और श्राद्ध की अत्यंत कठिन और जटिल प्रक्रिया का वर्णन है। यहां इस आलेख में जन-सामान्य हेतु श्राद्ध व तर्पण की सरल, संक्षिप्त एवं सामान्य विधि का वर्णन किया जा रहा है, जिससे कि साधारण जन श्रद्धा कर सकें और श्राद्ध व तर्पण कर्म का लोप न हो –
सर्वप्रथम नित्य कर्म व दैनिक क्रिया से निवृत्त होकर स्नान आदि कर एवं स्वच्छत वस्त्र पहनकर किसी नदी, सरोवर, तालाब कुंड या कुएं पर या घर पर ही दोनों हाथों के अनामिका अंगुली में कुश की पवित्री धारण कर हाथ में कुश, काले तिल, जौं, अक्षत सफेद पुष्प और जल लेकर पूर्वाभिमुख होकर व अपना गोत्र और नाम लेकर
निम्नलिखित मंत्र बोलकर संकल्प करें –
‘अस्मद् …… गोत्रह उत्पन्न: ……. नामन्ह (अपना गोत्र और नाम) पितृ (पिता), पितामह, प्रपितामहानां, सपत्नीकानां तथा च मातामह, प्रमातामह, वृद्धप्रमातामहानां, सपत्नीकानां तथा च समस्त पितृणाम् अक्षय तृप्ति प्राप्त्यर्थम् देवर्षि पितृ तर्पणं अहं करिष्ये।’
पूर्व की ओर मुंह करके जनेऊ को बाएं कंधे पर (सव्य) रखते हुए कुश हाथ में लेकर उसके अगले भाग से दोनों हाथों के अगले भाग से सफेद चंदन, अक्षत, पुष्प लेकर देवताओं के निम्न नामों से एक – एक अंजुलि जल नदी, सरोवर, या किसी ताम्र, पीतल या चांदी के पात्र में दें –
ॐ ब्रह्मा तृप्यताम्।
ॐ विष्णु: तृप्यताम्।
ॐ रुद्र: तृप्यताम् ।
ॐ प्रजापति: तृप्यताम्।
ॐ देवा: तृप्यन्ताम्।
ॐ छंदासि तृप्यन्ताम्।
ॐ वेदा: तृप्यन्ताम्।
ॐ ऋषय: तृप्यन्ताम्।
ॐ पुराणाचार्या: तृप्यन्ताम्।
ॐ गंधर्वा: तृप्यन्ताम्।
ॐ इतराचार्या: तृप्यन्ताम्।
ॐ संवत्सर: सावयव: तृप्यन्ताम् ।
ॐ देव्य: तृप्यन्ताम्।
ॐ अप्सरस: तृप्यन्ताम्।
ॐ देवानुगा: तृप्यन्ताम्।
ॐ नागा: तृप्यन्ताम्।
ॐ सागरा: तृप्यन्ताम्।
ॐ पर्वता: तृप्यन्ताम्।
ॐ सरित: तृप्यन्ताम्।
ॐ मनुष्या: तृप्यन्ताम्।
ॐ यक्षा: तृप्यन्ताम्।
ॐ रक्षांसि तृप्यन्ताम्।
ॐ पिशाचा: तृप्यन्ताम्।
ॐ सुपर्णा: तृप्यन्ताम्।
ॐ भूतानि तृप्यन्ताम्।
ॐ पशव: तृप्यन्ताम्।
ॐ वनस्पतय: तृप्यन्ताम्।
ॐ ओषधय: तृप्यन्ताम्।
ॐ भूतग्राम: चतुर्विध: तृप्यन्ताम्।
इस तरह 29 (उनतीस) अंजुलि जल देवताओं को दें।
देवताओं के तर्पण के पश्चात् द्वितीय तर्पण क्रम में ऋषियों के तर्पण का विधान है। जनेऊ या गमछा को गले में माला की तरह करके मुंह उत्तर की ओर करके कुश का मध्य भाग, चंदन, जौ, पुष्प दोनों हाथ में लेकर दोनों हाथों के मध्य भाग अर्थात कनिष्ठिका (छोटी) ऊंगली के जड़ से हथेली के बीच से दो – दो अंजुलि जलांजलि निम्न मंत्र पढ़कर दें –
१- ॐ सनक: तृप्यताम्।
२- ॐ सनन्दन: तृप्यताम् ।
३- ॐ सनातन: तृप्यताम्।
४- ॐ कपिल: तृप्यताम्।
५- ॐ आसुरि: तृप्यताम्।
६- ॐ वोढु: तृप्यताम्।
७- ॐ पंचशिख: तृप्यताम्।
पुनः एक – एक अंजुलि जल पूर्व की ओर मुंह करके कुश, अक्षत, पुष्प, चंदन से जनेऊ या गमछा बाएं कंधे (सव्य) पर करके दस ऋषियों के लिए जलांजलि दें। सबका नाम लेते हुए केवल अंत में तृप्यताम् कहें जैसे –
८- ॐ मरीचि: तृप्यताम्।
९- ॐ अत्रि: तृप्यताम्।
१०-ॐ अंगिर: तृप्यताम्।
११- ॐ पुलस्त्य: तृप्यताम्।
१२- ॐ पुलह: तृप्यताम्।
१३- ॐ क्रतु: तृप्यताम्।
१४- ॐ प्रचेता: तृप्यताम्।
१५- ॐ वशिष्ठ: तृप्यताम्।
१६- ॐ भृगु: तृप्यताम्।
१७- ॐ नारद: तृप्यताम्।
देवों और ऋषियों के तर्पण के पश्चात् पितरों के तर्पण का विधान है। इस तर्पण में जनेऊ अथवा गमछा को दाहिने कंधे (अपसव्य) पर रखकर, संभव हो तो बायां घुटना मोड़कर, कुश का मूल भाग, काले तिल, जौं, सफेद पुष्प और जल लेकर दक्षिण तरफ मुंह करके पितृतीर्थ (अंगूठे और तर्जनी अंगुली का मध्य भाग) से तीन – तीन अंजुलि जल निम्न मंत्रों को पढ़कर दें –
१- ॐ कव्यावाडनल: तृप्यताम् तस्मै स्वधा।
२- ॐ सोम: तृप्यताम् तस्मै स्वधा।
३- ॐ यम: तृप्यताम् तस्मै स्वधा।
४- ॐ अर्यमा: तृप्यताम् तस्मै स्वधा।
५- ॐ अग्निस्वाता: तृप्यन्ताम् तेभ्य: स्वधा।
६- ॐ सोमपा: पितर: तृप्यन्ताम् तेभ्य: सवधा।
७- ॐ वर्हिषद: तृप्यन्ताम् तेभ्य: स्वधा।
पुनः 14 यमराजों के नाम से भी तीन – तीन बार जल दें –
ॐ यमाय नमः
ॐ धर्मराजाय नमः
ॐ मृत्यवे नमः
ॐ अनन्ताय नमः
ॐ वैवस्वताय नमः
ॐ कालाय नमः
ॐ सर्वभूतक्षयाय नमः
ॐ औदुम्बराय नमः
ॐ दध्नाय नमः
ॐ नीलाय नमः
ॐ परमेष्ठिने नमः
ॐ वृकोदराय नमः
ॐ चित्राय नमः
ॐ चित्रगुप्ताय नमः
पुनः पितरों के नाम से दें-
१-अद्य अमुक (पिता का गोत्र) गोत्र अस्मद पिता (नाम) वसुस्वरूप: तृप्यताम् तस्मै स्वधा।
२- अद्य अमुक गोत्र: अस्मद् पिता-मह (दादाजी) रुद्रस्वरूप: तृप्यताम् तस्मै स्वधा।
३- अद्य अमुक गोत्र: अस्मद् प्र-पितामह (परदादा) आदित्यस्वरूप: तृप्यताम् तस्मै स्वधा।
४- अमुक गोत्रा: अस्मद् माता (माता का नाम) गायत्री स्वरूपा तृप्यताम् तस्यै स्वधा।
५- अमुक गोत्रा: अस्मद् पिता-मही (दादी) सावित्री स्वरूपा तृप्यताम् तस्यै स्वधा।
६- अमुक गोत्रा: अस्मद् प्र-पितामही (परदादी) सरस्वती स्वरूपा तृप्यताम् तस्यै स्वधा।
पुनः नाना-नानी के लिए जल दें-
१- अमुक गोत्र: अस्मद् माता-मह (नाना) तृप्यताम् तस्मै स्वधा।
२-अमुक गोत्र: अस्मद् प्र-मातामह (परनाना) तृप्यताम् तस्मै स्वधा।
३- अमुक गोत्र: अस्मद् वृद्ध-प्र-मातामह (वृद्ध परनाना) तृप्यताम् तस्मै स्वधा।
४- अमुक गोत्रा: अस्मद् माता-मही (नानी) तृप्यताम् तस्यै स्वधा।
५- अमुक गोत्रा: अस्मद् प्र-मातामही (परनानी) तृप्यताम् तस्यै स्वधा।
६- अमुक गोत्रा: अस्मद् वृद्ध-प्र-मातामही (वृद्ध नानी) तृप्यताम् तस्यै स्वधा।
परिवार के अन्य अज्ञात लोगों के लिए भी कुछ जल दे दें।
पुन: गमछा का एक कोना जल में भिगोकर निचोड़ दें।
पुनः जनेऊ या गमछा बाएं कंधे (सव्य) पर करके पूर्व की ओर मुंह करके जौ- कुश लेकर तीन बार जल भीष्म पितामह को दें और पढ़ें –
‘ॐ वैयाघ्रपदगोत्राय सांकृत्य प्रवराय च। अपुत्राय ददाम्येतत् एवं भीष्माय वर्मणे।’
ताम्र पात्र में गंध, जवा पुष्प जल, रक्त चंदन लेकर
‘ॐ सूर्याय नमः’
बोलकर सूर्य को अर्घ्य दें और दक्षिणावर्ती परिक्रमा करें। ध्यान रहे प्रतिदिन गमछा निचोड़ें परंतु जिस दिन श्राद्ध हो उस दिन नहीं।
यह एक सामान्य तर्पण विधि है जिससे साधारण जन भी श्राद्ध कर सकें। तर्पण व श्राद्ध कर्म का लोप न हो।