दिव्य शास्त्रों, स्तोत्रों, स्तुतियों और प्रसंगों के श्रवण अध्यन मनन चिंतन से हृदय के अंतस में ईश्वर प्रेम का दीप प्रजज्वलित हो जाता है और यही इस मनुष्य जीवन की सार्थक उपलब्धि भी होती है। आजकल चे भौतिकतावादी संसार में प्रायः चारों ओर घनघोर अंधकार ही दिखायी देता है और उसी अंधेरे में प्रायः सभी हाथ पैर मार रहे हैं। अशांत जीवन में रोग- शोक की भरमार है, सब कुछ अनिश्चित है और जीवन भ्रम और अनुमान के सहारे कट रहा है। किन्तु जब हृदय में प्रभु प्रेम ज्ञान व कृपा का दीप जल जाता है तो हृदय के भीतर और बाह्य दोनों में निरंतर प्रज्वलित इस दीपक के आलोक से हमारा समस्त जगत भी आलोकित हो जाता है, चूंकि शाश्वत और सत्य की आभा और उसका प्रकाश भी शाश्वत और सत्य ही होता है।
जीवन का सार रसरूप श्रीयुगल स्वरूप की उपासना और उनकी सरस व प्रेममय लीलाओं में निहित है। यदि मनुष्य अंहकार मद मोह और लोभ आदि का त्याग कर रसमय प्रीतमय प्रेममय हो जायें, और अपने अंतस में प्रेमभाव व परमात्मा से सच्चा प्रेम जगा ले तो अनन्त रसमय ब्रह्म का हमारे जीवन में प्रवेश हो जाएगा। जीवन में एक पूर्णता और तृप्ति का अनुभव होगा। जीवन में शाश्वत संतुष्टि का भाव और सच्चा संतोष प्रकट होगा। किन्तु ऐसे दिव्य “रस” की प्राप्ति तभी होगी, जब अंतः रसमय – प्रेममय होगा।
अपने पिताश्री (पंडित हरिदत्त शर्मा, मूर्धन्य पत्रकार, लेखक व आध्यात्मिक चिंतक) के पुण्य प्रताप, संतों की सत्संगति एवं गुरू कृपा के फलस्वरूप बालपन से ही मेरा रूझान सत् साहित्य व विभिन्न धार्मिक आध्यात्मिक पुस्तकों अध्यन मनन की ओर हो गया था और ‘सास्त्र सुचिंतित पुनि पुनि देखिअ’ के अनुसार उन्हीं ज्ञान भुक्ति मुक्ति रसबिंदुयों के पुनः रसास्वादन और ‘स्वान्तः सुखाय’ हेतु ब्लाॅग लेखन के रूप में यहां पुनः प्रस्तुत कर रहा हूँ, यदि सुधि पाठकजन, श्रोता व दर्शकगण भी इसका रसास्वादन कर आनंदित हो सकें तो मेरा उत्साहवर्धन के साथ साथ आनंदवर्धन भी होगा।
—मनोज शर्मा