श्रीराधा-कृष्ण की सर्व प्रधान सखी श्री ललिता जी की जयंती ‘श्रीललिता षष्ठी’ पर विशेष आलेख

श्रीललिता सखी ही हैं, त्रिपुर सुन्दरी ललिताम्बा

श्रीराधारानी की आठ अति प्रिय सखी मानी गई हैं, जिनकी जन्मस्थली भी श्रीराधारानी की जन्मस्थली बरसाना के आसपास के आठ गांवों में मानी जाती है। इन आठों सखियों में से श्रीराधाजी की सबसे प्रधान सखी श्रीललिता सखी का जन्मस्थान बरसाना के पश्चिम में दो-तीन किलोमीटर की दूरी पर स्थिति ‘यावट-ऊँचा गाँव’ है। यहाँ पर श्रीप्रिया – प्रियतम की दिव्य लीलाएं भी हुई है। इनकी माता का नाम – शारदा और पिता का नाम – विशोक (एकमत से – सत्यकला, सत्यभानु) है। इनके पिता में जो औदार्य गुण है, वह इनमें पूर्ण रूप से व्यक्त हुआ है। ‘यावट – ऊँचा गाँव’ में श्रीललिता सखी का मन्दिर भी है। श्रीललिता सखी का यह मन्दिर एक ऊंची जगह पर स्थित है, जहाँ सैकडों सीढ़ियां चढकर जाया जाता है।

श्रीराधा कृष्ण की मुख्य आठ सखियां इस प्रकार है – श्रीललिता, विशाखा, चित्रा, इन्दुलेखा, चम्पकलता, रंगदेवी तुंगविद्या और सुदेवी। इन्हें ही अष्टसखियां कहा जाता है। इन आठों सखियों यानि अष्टसखियों को “परमप्रेष्ठसखी” कहा जाता है। इन परमप्रेष्ठ सखियों की गणना श्रीराधाजी की पाँच प्रकार की सखियों में सर्वश्रेष्ठ है। इन (अष्टसखी-परमप्रेष्ठसखी) सखियों में से भी सबसे प्रधान सखी हैं- श्रीललिताजी।

श्रीराधाजी की पाँच प्रकार की सखियाँ इस प्रकार हैं— सखी, नित्यसखी, प्राणसखी, प्रियसखी और परमप्रेष्ठसखी।

कुसुमिका, विन्ध्या, घनिष्ठा आदि ‘सखी’ कहलाती हैं। कस्तूरी, मणिमञ्जरिका आदि ‘नित्यसखी’ कही जाती हैं। शशिमुखी, वासन्ती, लासिका आदि ‘प्राणसखी’ की गणना में हैं तथा कुरंगाक्षी, मञ्जुकेशी, माधवी, मालती आदि ‘प्रियसखी’ कही जाती हैं।

हृदय से जुड़ी हुई अनन्त धमनियों की ही भाँति श्रीराधा की यह समस्त सखियाँ राधा-हृदय सरोवर से निरन्तर प्रेमरस लेती हैं, और उस रस को सर्वत्र फैलाती रहती हैं। साथ ही साथ यह सखियाँ अपना प्रेमरस भी राधा-हृदय में उँड़ेलती रहती हैं। इस रसविस्तार के कार्य में अष्टसखियों – परमप्रेष्ठसखियों का प्रमुख स्थान है और उनमें से भी श्रीललिता जी का सबसे प्रमुख स्थान है। अतः राधारानी की समस्त लीलाओं की मर्म अध्यक्ष-रूपिणी ये ही हैं। निरन्तर वाम्य एवं प्रखरता का एक अद्भुत समिश्रण इनकी चेष्टाओं में परिलक्षित होता है। संधिविग्रह – जिस भाँति से अधिकाधिक रसपोषण सम्भव है, उसी प्रकार की चेष्टाओं में परिव्याप्त रहकर यह प्रिया-प्रियतम का आनन्दवर्धन करती हैं। इनके कुञ्ज का रंग “विद्युद्वर्ण” है। श्रीललिता जी का पूजन ध्यान श्लोक मंत्र–:

गोरोचना रुचि मनोहर कान्ति देहां,
मायूरपुच्छ तुलितच्छवि चारुचेलाम्।
राधे तव प्रियसखीं च गुरुं सखीनां
ताम्बूल भक्ति ललितां ललितां नमामि॥

अर्थात : “हे राधे ! गोरोचन के समान जिनके श्रीअंगों की मनोहर कान्ति है, जो मयूरपिच्छ के समान चित्रित सुन्दर बेलयुक्ता वस्त्र धारण करती हैं, उज्जवल आभूषण पहनती हैं, जो राधा माधव की ताममूल फल से सेवा करती हैं, इस सेवा से जो अत्यन्त ललित (सुन्दर) हो रही हैं, जो सखियों की गुरुरूप हैं, आपकी उन प्यारी सखी श्रीललिता को मैं प्रणाम कर रहा हूँ। मै ध्यान करता हूँ”

रसिक संतजनों की वाणी है कि श्रीराधा-माधव की अविचल भक्ति प्राप्ति हेतु श्रीललिताजी की आराधना करनी चाहिये, क्योंकि इनकी कृपा के बिना श्रीराधा-कृष्ण की भक्ति का मार्ग सुगम नहीं हो सकता है। जैसे महादेव की कृपा, बिना नन्दी को प्रणाम किये बिना नही पाई जा सकती, जैसे भगवान श्रीराम की कृपा बिना हनुमान के नही पाई जा सकती, ऐसे ही श्रीराधा रानी की कृपा भी श्रीललिता सखी के ध्यान अराधन बिना नही पाइ जा सकती और समस्त सखियों में ये बड़ी हैं। संतजन इनका ध्यान करते हैं। इनका “बीज मंत्र” है :
“श्री लाम ललिताय स्वाहा”
रसिक संतजन इस मंत्र का निरंतर जप करते हैं।

श्रीललिता सखी की तीन प्रधान सहायिकाएँ हैं— अनंगमञ्जरी, लवंगमञ्जरी, रूपमञ्जरी। श्रीललिताजी की भी आठ सखियाँ हैं— रत्नप्रभा, रतिकला, सुभद्रा, भद्रेखिका, सुमुखि, धनिष्ठा, कलहंसी, कलापिनी।

श्री ललिता सखी जी की जन्म स्थली ऊंचा गांव स्थित मंदिर में श्री राधाकृष्ण सहित ललिता सखी जी का मंगलकारी व कल्याणकारी दर्शन

त्रिपुर सुन्दरी ललिताम्बा ही श्री ललिता सखी है :

त्रिपुर सुन्दरी ललिताम्बा ही श्री ललिता सखी है :

नंदनंदन श्रीकृष्ण के कुलगुरु महर्षि शाण्डिल्य श्रीकृष्ण के प्रपौत्र श्री वज्रनाभ को श्रीललिता सखी का परिचय और रहस्य बताते हुए कहते हैं कि यही ललिता सखी साक्षात त्रिपुर सुन्दरी हैं। यह भगवान शिव के हृदय में विराजती हैं। समस्त कामनाओं की पूर्ति करनें वाली और समस्त तन्त्र मन्त्र की अधिष्ठात्री हैं। देवों की भी पूज्या, देवों की भी इष्ट और समस्त साधनाओं की देवी हैं ये त्रिपुर सुन्दरी। यही त्रिपुर सुन्दरी ही ललिताम्बा के नाम से प्रसिद्ध हैं। इनके अनेक नाम हैं। समस्त देवि देवताओं की ये सदा वन्दनीया भी हैं। इतना ही नही, मन्त्र विज्ञान और शाक्त दर्शनों में तो ये भी आया है कि ब्रह्मा विष्णु और रूद्र की भी वरदायिनी हैं, ये त्रिपुरा भगवती ललिताम्बा। साक्षात शिव को भी इन्हीं ललिताम्बा त्रिपुर सुंदरी यानि कि श्रीललिता सखी की कृपा सहयोग से ही महारास में प्रवेश मिल पाया था। इस प्रकार एक रूप से ललिता जी शिव जी की गुरू हो गईं, क्योंकि उन्होंने शिवजी को महाराष्ट्र में प्रवेश हेतु युगल मंत्र का उपदेश दिया।

हे वज्रनाभ! यही त्रिपुर सुन्दरी भगवती ही यहाँ श्रीराधा और श्याम सुन्दर की प्रसिद्ध प्रमुख सखी बनकर इनकी सेवा में नित्य रहती हैं।

ये श्रीराधाजी की समस्त सखियों में मुख्य सखी हैं, तो विचार करो हे वज्रनाभ! त्रिपुरा सुन्दरी जिनकी सेवा में निरन्तर लगी रहती हैं और उत्साह से अति उमंग प्रेमपूर्ण होकर, तो उन अल्हादिनी श्रीराधा रानी की महिमा का गान कौन कर सकता है?

श्रीललिता सखी श्रीप्रिया-प्रियतम को निम्न विशेष सेवाएँ अर्पण करती हैं— ताम्बूल सेवा, पुष्प वितान, पुष्प मण्डल, पुष्पछत्र, पुष्पशय्या, पुष्पगृह आदि की रचना में एवं पहेली की अर्थ-अवधारणा में इनके समान निकुञ्जलीला में कोई नहीं है। इन्द्रजाल की भी यह पण्डिता हैं। श्रीललिता में नित्य दिव्य आवेश रहता है। श्री प्रिया-प्रियतम की नित्य कैशोरलीला में श्रीललिता की आयु चौदह वर्ष तीन मास बारह दिन की रहती है। ये विशुद्ध खण्डिता भाव की मूल स्रोत हैं। अतीत, वर्तमान, भविष्य में प्रवाहित खण्डिता भाव की प्राकृत धारा इनके विशुद्ध रसमय चिदानन्दमय भाव की ही छाया है। अवश्य ही इनमें जो खण्डिता भाव है वह अपने निमित्त से व्यक्त नहीं होता। भानुकिशोरी एवं श्रीकृष्णचन्द्र के निर्दिष्ट सम्मिलन में विलम्ब होने पर ही इस दिव्य भाव का उन्मेष होता है। ‘भैरव–कलिंगड़ा’ राग इन्हें अत्यधिक प्यारा है। इनका प्रिय वाद्य ‘वीणा’ है।

महाकवि रत्नाकर जी ने अपने महाकाव्य में श्री ललिता जी के विषय में निम्न पद की रचना की है :

श्री ‘ललिता’ लावण्य ललित सखि, गोरोचन-आभा-जुत अंग।
विद्युद्-वर्णि निकुञ्ज निवासिनि, वसन रुचिर शिखिपुच्छ सुरंग॥
इन्द्रजाल-निपुणा, नित करती परम स्वादु ताम्बूल प्रदान।
कुसुम-कला-कुशला रचती कल कुसुम-निकेतन कुसुम-वितान॥
(पद सं० ४८)

वृंदावन में श्री बांके बिहारी जी के प्रकाट्यकर्ता स्वामी श्रीहरिदास जी को श्रीललिता जी का अवतार माना जाता है। आज से पांच सौ साल पूर्व वृंदावन के पास के एक गाँव में हरिदास जी का जन्म हुआ था। वे मुगल बादशाह अकबर के नवरत्न व संगीत सम्राट तानसेन और बैजूबावरा के संगीत गुरु भी थें। बादशाह अकबर भी बड़ी श्रद्धा भक्ति के साथ उनके दर्शन के लिए आया करते थे। उन्होंने ही अपनी संगीत साधना और तपोबल से अपनी तपस्थली व साधनास्थली वृंदावन के निधिवन में श्रीबांके बिहारी जी के श्रीराधा-कृष्ण युगल स्वरूप विग्रह को प्रकट किया था। उनके बचपन का एक प्रसंग है कि एक बार वो अपने पिता के साथ मंदिर में दर्शन अर्चन हेतु गए और उनके पिता ने उनसे वहां शिवलिंग पर जल चढाने को कहा, जब वे भगवान शिव को जल चढानें लगे तो, भगवान शिव उनके पिता से बोले कि ये आप क्या करा रहे हो ? ये तो मेरी गुरू हैं और भला कोई गुरू से सेवा लेता है ? द्वापर में महारास लीला में इन्होंनें ही श्रीललिता सखी के रूप में मुझे मंत्र दिया था। अतः श्रीललिताजी कोई सामान्य सखी नहीं हैं। श्रीललिता जी को शिवजी अपना गुरू मानते हैं। अतः स्वामी श्रीहरिदास जी को श्रीललिता सखी जी का ही अवतार माना जाता है।

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