शेषावतार भगवान श्रीबलराम जी की जयंती “श्रीबलदेव षष्ठी” पर विशेष आलेख

ब्रज के राजा दाऊ दयाल

ब्रह्मांड नायक परात्पर परब्रह्म भगवान विष्णु के आधारभूत शैय्या रूप भगवान शेषनाग ने द्वापर युग में श्रीवसुदेवजी की सातवीं संतान और श्रीकृष्ण के बड़े भाई भगवान बलभद्र के रूप में ब्रज मंडल में अवतार लिया। श्रीबलरामजी श्रीकृष्ण की समस्त लीलाओं में, उनके सभी कार्यों में उनके सहयोगी रक्षक मार्गदर्शक भय और संकटहर्ता रहे हैं। श्रीमद्भागवत सहित अनेक ग्रंथों में एवं ब्रजमंडल के कण-कण में श्रीकृष्ण-बलराम की एक साथ की गई लीलाओं के साक्ष्य व प्रमाण उपलब्ध है। दाऊजी अपने बड़े भाई के दायित्व का निर्वाह करते हुए मर्यादाओं का संरक्षण करते हैं। दाऊजी ही बालकृष्ण को जन्म के समय में शेषनाग के रूप में कंस के कारागार से गोकुल तक की यात्रा में वसुदेवजी के साथ छाया बनकर बालकृष्ण को

सुरक्षित नंदबाबा के घर तक पहुंचाते हैं। श्रीकृष्ण की गिरिराज-धरण-लीला के समय जब अति घनघोर जलवर्षा होने लगती है, तो उस समय दाऊजी महाराज भी एक अति गोपनीय लीला के माध्यम से शेष रूप धरकर अपने शरीर को इतना बड़ा कर लेते हैं कि समस्त गौ, गोप-गोपियां और पर्वत को समाहित करके एक बहुत बड़ी कुंडली बना लेते हैं कि जल का प्रवाह उस घेरे से बाहर ही रुक जाता है।

शुभे भाद्रपदे मासे हेमागते पुण्य योगतः।
षष्ठया तिथौ शुक्ल पक्षे मध्यान्हे वृश्चिक लग्नके।
रोहिण्या च स्वयं जातो आदिशेषों महाबल:।

श्रीबलदेव जी का जन्म श्रीकृष्ण के जन्म से दो वर्ष पूर्व भाद्रपद शुक्ल षष्ठी (छठी) को

विद्रूभ वन में हुआ था। श्रीमद्भागवत के अनुसार कंस के अत्याचारों के भय से कंस के बहनोई वसुदेवजी महाराज की बड़ी रानी रोहिणी जी वसुदेवजी के चचेरे भाई और मित्र नंदरायजी के यहां गोकुल में गुप्त रूप से निवास कर रही थी और जब श्रीबलदाऊ जी का जन्म होने वाला था तो नंदरायजी उन्हें अपनी पत्नी श्रीयशोदा जी के साथ एक अत्यंत गुप्त स्थान यानि विद्रूभ वन में भेज दिया था, जिससे कि कंस और उसके अत्याचारी राक्षसों को इस बात का ज्ञान ना हो सके कि वसुदेव की सातवीं संतान का जन्म होने वाला है।

श्रीयोगमाया द्वारा माता देवकी के गर्भ में से आकर्षण कर माता रोहिणी के गर्भ में स्थापित करने के कारण ही बलदेव जी का एक नाम संकर्षण भी है। दाऊजी की बाल्यावस्था भी माता रोहिणी एवं माता यशोदा के वात्सल्य-छाया में विदुभ वन में ही बीती।

वर्तमान में यह स्थल मथुरा का निकटवर्ती नगर “बल्देव” है। यह स्थल मथुरा से पूर्व की दिशा में गोकुल महावन रमणरेती ब्रह्मांड घाट के निकट स्थित है। यहां दाऊजी का अति प्राचीन विशाल मंदिर है। यहां दाऊजी महाराज का स्वयं प्राकट्य विग्रह है, यह विग्रह अति सुंदर एवं ब्रजमंडल के सबसे विशाल ठाकुरजी का विग्रह है। ब्रज मंडल के समस्त बड़े तीर्थ स्थानों और लीला स्थलियों में श्री दाऊजी महाराज के अनेक प्राचीन मंदिर सरोवर और कुंड हैं परंतु जन्मस्थली होने के कारण दाऊजी महाराज का मुख्य मंदिर व स्थल “बल्देव” ही है।

द्वारका जाने से पूर्व ही श्रीबलराम जी का विवाह रैवतक पर्वत (गुजरात) पर महाराज कुकुम्भी की पौत्री रेवती से हुआ था। वर्तमान गुजरात प्रदेश में एक प्राचीन स्थल अनार्तदेश के मध्य में इसकी राजधानी कुश स्थली (वर्तमान में गिरनार के निकट) नामक एक नगर था। वहां के सूर्यवंशी महाराज शर्याती के पुत्र राजा कुकुम्भी बड़े प्रतापी थे। राजा कुकुम्भी का इतना तप प्रभाव था कि वह स्वर्ग आदि किसी भी देवलोक में आ जा सकते थे। इनके पुत्र राजा रेवत हुए और रेवत जी की एक कन्या थी रेवती। उसी रेवती नामक कन्या का विवाह ब्रह्मा जी के सत्-परामर्श और आशीर्वाद से ही भगवान श्रीबलदेव जी के साथ हुआ था।

श्रीदाऊ जी महाराज ब्रजराज है यानि समस्त ब्रज मंडल के राजा है। कंस के ससुर जरासंघ के लगातार हो रहे आक्रमणों के कारण हो रही भारी जन व धन की हानि से मुक्ति दिलाने के लिए श्रीकृष्ण के सुझाव पर श्रीकृष्ण बलराम के नानाजी महाराज उग्रसेन सहित अधिकांश ब्रजवासी द्वारिका प्रस्थान कर गए और वहां एक नए नगर का निर्माण करके वहीं राज्य करने लगे। वृद्धावस्था के कारण श्रीकृष्ण को द्वारकाधीश बना दिया गया किंतु शेष बचे ब्रजवासियों की सुरक्षा हेतु, और ब्रज मंडल के गौ वन प्रकृति के संवर्धन और संरक्षण हेतु श्रीबलराम जी को ब्रज का राजा बनाया गया।

बलदेव नगर मथुरा में स्वयं प्राकट्य श्री दाऊजी महाराज एवं रेवती मैया के कल्याणकारी दर्शन

दाऊजी अति बलशाली और अति पराक्रमी थे।दाऊजी ने मात्र 6 माह की अल्प आयु में शकुनि जैसी भयानक राक्षसी का संहार कर अपने धाम भेजा। जरासंघ के प्रत्येक आक्रमणों को उन्होंने अपने शौर्य और पराक्रम से विफल किया। दाऊजी ने एक त्रेता युगीन अति विकराल वानर “द्विविद” जो कि रावण का मित्र भी था और उस और उस समय आतंक का पर्याय बन चुका था, उसका अपने पराक्रम से सहज ही संहार किया। श्रीरेवती देवी से उनका पाणिग्रहण भी मल युद्ध प्रतियोगिता में विजय होने के पश्चात हुआ था।

वह मल्ल युद्ध और गदा युद्ध के सर्वश्रेष्ठ योद्धा और गुरु थे। वे बड़े ही न्यायप्रिय और प्रजा रक्षक थे। उन्होंने श्रीकृष्ण रक्षण एवं प्रजारक्षण हेतु कई दुराचारियों अत्याचारी राक्षसों का स्वयं वध किया है, कई राक्षसों के संहार में श्री कृष्ण की सहायता की है।

आज भी दाऊजी महाराज समस्त ब्रज क्षेत्र की सुरक्षा और संरक्षण करते हैं। दाऊजी की ही कृपा से समस्त ब्रजमंडल के मंदिरों, वहां के दिव्य लीला स्थलों पर आयोजित सभी उत्सव महोत्सव निर्विघ्नं और आनंदपूर्वक संपन्न होते हैं।

कल्याणाराधितं देवं सर्व कल्याण कारकम्।
वंदे शेषावतारं तं शेष लक्षण संयुतम्।।

शास्त्रों में कहा गया है कि जब सृष्टि का लय होता है तब भी जो शेष रह जाता है, वही भगवान शेष है। क्योंकि किसी भी कार्य का दृष्टा होना भी अनिवार्य है। श्रीमद्भागवत के पांचवें स्कंध के 25 वें अध्याय में कहा गया है कि भगवान शेष के ईक्षण मात्र से ही सृष्टि का व्यापार क्रम चलता रहता है और जड़ प्रकृति पुनः चैतन्य होकर सृष्टि निर्माण में प्रवृत्त होती है। यह कार्य विधि भगवान शेष के द्वारा ही होती है। उपनिषदों और वेदांत के ब्रह्मसूत्र में भी वर्णन है कि भगवान शेष द्वारा ही सृष्टि के कृतित्व, पालकत्व एवं निवारकत्व की क्रियाएं संपादित होती हैं। अतः भगवान शेष ही ब्रह्म है ऐसा माना गया है। अतः भगवान शेष ही इस संसार के विधाता, पोषक एवं संहर्ता है। श्री दाऊजी महाराज के आयुध शस्त्र हल और मूसल हैं। हल से ही खेतों को जोतकर अन्न उत्पन्न किया जाता है और उस अन्न को मूसल के प्रहार से परिष्कृत कर खाने योग्य बनाया जाता है और इस अन्न से ही मानव की जीवन यात्रा चलती है। यदि हम इस लौकिक दृष्टि से भी देखे हैं तो प्रतीकात्मक रूप से भी भगवान बलदेव जी द्वारा सृष्टि के उदभव एवं पालन का हेतु प्रतिपादित होता है।

श्रीमद्भागवत पुराण में वर्णन आता है कि भगवान शेष के ध्यान में सुर असुर गंधर्व सिध्द विद्याधर मुनिगण लीन रहते हैं। जिनके श्रीअंग में से तुलसी की मनोहर गंध सुवासित होती रहती है। जिनके उन्मित नेत्र सदा मदविह्वल रहते हैं। गले में वैजयंती माला शोभायमान हैं। जिनके एक कर्ण में कुंडल है, कटी भाग में स्वर्ण की विशाल करधनी धारण किये हैं। नीलांबरधर (नीले वस्त्र धारण करने वाले) हल मूसलमान आयुधों से शोभायमान रहते हैं।

दाऊजी मन्दिरबलदेव

संपूर्ण भारतवर्ष में श्रीबलराम जी के अनेक मंदिर विद्यमान हैं। द्वारका से लेकर जगन्नाथपुरी तक बलदेव जी के विग्रह के दर्शन होते हैं। जगन्नाथ पुरी मंदिर में भगवान जगन्नाथ जी के साथ ही भगवान बलभद्र जी एवं उनकी बहन सुभद्रा जी भी प्रतिष्ठित है। उत्तर में जम्मू कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक बलदेव जी के अनेक मंदिर हैं। चेन्नई में भी बलदेव जी का एक बहुत विशाल प्राचीन मंदिर है। उड़ीसा में भी दाऊजी के अनेक मंदिर हैं। उड़ीसा के केंद्रा पाड़ा में दाऊजी का बहुत ही विशाल और प्राचीन मंदिर है, जहां दाऊजी महाराज बड़देव जी के नाम से विख्यात है। श्री दाऊजी महाराज ने संपूर्ण भारतवर्ष की यात्रा, देशाटन और तीर्थाटन किया था, उसी क्रम में देश के हर क्षेत्र में दाऊजी की यात्रा और उनकी लीला से संबंधित अनेक दर्शनीय तीर्थ स्थल और मंदिर है। वर्तमान के पाकिस्तान के पेशावर शहर में भी दाऊजी का एक बड़ा भव्य मंदिर था किंतु वर्तमान में अब वह श्रीविग्रह नाथद्वारा में विराजमान है। भारत के अतिरिक्त अनेक देशों में भी दाऊजी की पूजा-अर्चना बड़ी श्रद्धा भाव से होती रही है, इसके कई प्रमाण देखने को मिलते हैं। उदाहरण के तौर पर यूनान के शासक ‘अर्थेग्लो कियस’ भी दाऊजी महाराज के बहुत बड़े भक्त थें और उनहोंने अपने समय में रजत मुद्राओं पर श्री बलदेव जी का नाम अंकित करवाया था। ईसा पूर्व की यह मुद्राएं अभी भी कई पुरातत्व संग्रहालय में मौजूद हैं। अफगानिस्तान से भी दाऊजी के विग्रह और उनके नाम अंकित रजत मुद्राएं प्राप्त हुई है। देश-विदेश के अनेक संग्रहालयों में दाऊजी महाराज की अत्यंत प्राचीन मूर्तियां और मुद्राएं सुरक्षित हैं, जो उनकी मान्यता और पूजा अर्चना की सार्वभौम व्यापकता को प्रदर्शित करती है। संस्कृत साहित्य के अनेक महाकवियों द्वारा भी अपने ग्रंथों में दाऊजी का स्मरण किया है। महाकवि कालिदास के मेघदूत नामक महाकाव्य के रैवतक पर्वत के वर्णन में बलदेव जी का स्मरण करते हुए वंदना की गई है। महाकवि माघ ने भी अपने स्वप्न वासवदत्ता नामक नाटक के मंगलाचरण में बलदेव जी की वंदना की है। महाकवि भवभूति ने भी बलराम जी का वर्णन एवं उल्लेख किया है। उड़िया भाषा में भी बलदेव जी से संबंधित साहित्य उपलब्ध है। उत्कल प्रदेश यानी कि उड़ीसा में बलराम तत्व, ब्रह्म संहिता और हलायुद्ध आदि कई ग्रंथ प्राप्त हुए हैं, जिनमें भगवान की लीलाओं का वर्णन वर्णन है। मलयालम भाषा साहित्य में बलदेव जी के अनेक उपाख्यान मिलते हैं। केरल में स्थान स्थान पर श्रीराधा-कृष्ण और श्रीकृष्ण-बलराम के देवालय और साहित्य प्रचुर मात्रा में मिलते हैं। जैन मत में श्रीबलदेव जी को भगवान नेमिनाथ एवं भगवान पार्श्वनाथ के भाई के रूप में माना जाता है। बौद्ध जातक कथाओं में भी बौद्ध मतानुसार श्रीबलदेव जी भिन्न रूप में पूजित हैं। बौद्ध कथा में मुचलिन्द नामक नाग देवता है, जिनका कई विशेष संदर्भो में उल्लेख मिलता है।

अंतत:

महाभारत युद्ध के पश्चात प्रायः समस्त ब्रजमंडल क्षेत्र जंगल के रूप में परिवर्तित-सा हो गया था। अधिकांश नागरिक अन्य प्रदेशों में पलायन कर गए थे। मात्र कुछ ही परिवार वहां शेष बचे थे। उस समय भगवान श्री कृष्ण के प्रपौत्र महाराज वज्रनाभ जी ने संबंधी (श्रीकृष्ण-बलराम की बहन सुभद्रा व अर्जुन के पौत्र एवं अभिमन्यु व उत्तरा के पुत्र) हस्तिनापुर के महाराजा परीक्षित के सहयोग से और नंदनंदन श्रीकृष्ण के कुलगुरू महर्षि शाण्डिल्य जी के सत्-परामर्श और उनकी कृपा दृष्टि से अपने पूर्वजों भगवान बलदेव-रेवती मैय्या, भगवान कृष्ण-बलराम, भगवान श्रीराधा-कृष्ण व उनके सखी-सखाओं आदि से संबंधित सभी दिव्य लीला स्थलियों का जीर्णोद्धार और पुनः प्रकाट्य किया, क्योंकि महर्षि शाण्डिल्य उन सब लीलाओं उन लीला स्थलियों के प्रत्यक्षदर्शी थे।

महाराज वज्रनाभ जी ने आरंभ में ब्रज मंडल में 4 देव, 4 महादेव और 4 देवी की स्थापना की थी, जिसमें से भी सर्वप्रथम उन्होंने अपने बड़े प्रपितामह (बड़े परदादा) श्री बलदेव जी एवं अपनी बड़ी प्रपितामही (बड़ी परदादी) श्री रेवती मैया जी की युगल प्रतिमाएं विद्रूभ वन (वर्तमान में “बल्देव”) स्थापित की। इसका वर्णन गर्ग संहिता, भविष्य उत्तर पुराण आदि अन्य अनेक ग्रंथों में मिलता है। उन्होंने इन विग्रहों की स्थापना ब्रह्मर्षि सौरभि वंशज ब्राह्मणों के पौरोहित्य में संपादित करवाई, जिनको वे इंद्रप्रस्थ (वर्तमान दिल्ली) से अपने साथ पौरोहित्य हेतु लाए थे। महाराजा परीक्षित के पुत्र राजा जनमेजय ने अपने यज्ञ संपादन हेतु सौभरिवंशीय ब्राह्मणों को वृंदावन (सुनरख) से इंद्रप्रस्थ आमंत्रित किया था और पौरोहित्य से विभूषित किया था। महाराज वज्रनाभ ने विद्रूभ वन में (वर्तमान में “बल्देव”) स्थापित श्रीरेवती जी एवं श्रीबलदेव जी के युगल देव विग्रहों की स्थापना के पश्चात, उनके समस्त पूजा-अर्चना का भार भी सौभरेय ब्राह्मणों को सौंप दिया। दाऊजी की ही कृपा और आशीर्वाद से, उस समय से अब तक ब्रह्मर्षि सौभरि वंशज आदिगौड़ अहिवासी ब्राह्मण ही बलदेव नगर स्थित इस दाऊजी मंदिर के पूजाधिकारी एवं अर्चक हैं। श्रीमद् भागवत विष्णु पुराण में इस संबंध में एक कथा आती है कि जिस समय भगवान श्री कृष्ण ने ‘कालिया नाग नाथन लीला’ की उस समय कालिया नाग और उसके परिवार को वह स्थान छोड़ना पड़ा। तब कालिया नाग को ब्रह्मर्षि सौभरि जी ने अपने यहां आश्रय देकर गरुड़ जी से संरक्षित किया। तभी शेषावतार भगवान बलराम ने सौभरि ऋषि को यह आश्वासन और आशीर्वाद दिया कि “आपने मेरे सवंश की रक्षा की है तो भविष्य में मैं भी आपके वंश का सर्वदा संरक्षण करता रहूंगा।” यही क्रम द्वापर युग से अभी तक चला आ रहा है और सौभरि वंशजों पर शेषावतार दाऊजी महाराज की असीम कृपा बनी हुई है। कालिया नाग की सुरक्षा के कारण ही यह क्षेत्र सुनरख अहिरवास क्षेत्र कहलाया और सौभरि वंशज अहिवासी ब्राह्मण कहलाए।

Comments

  1. Mrinal Yadav

    बांके बिहारी जी की कृपा जहां हैं सुख, शांति वा समृद्धि को तो वहां होना ही है।
    जय हो बांके बिहारी की

  2. Mrinal Yadav

    बलदेव के आशीर्वाद की तो जरूरत हर इंसान को है।वो श्री कृष्ण जी के बड़े जो हैं।

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