जयति श्रीराधिके सकल सुख साधिके, तरुनि मनि नित्य नव तन किसोरी।
कृष्ण तन नील घन रूप की चातकी, कृष्ण मुख हिम-किरन की चकोरी।।
कृष्ण दृग-भृंग विश्राम हित पप्रिनी, कृष्ण-दृग मृगज बंधन सुडोरी।
कृष्ण अनुराग मकरंद की मधुकरी, कृष्ण गुन-गान रस-सिंधु-बोरी।।
बिमुख पर चित्त ते चित्त याकौ सदा, करत निज नाह की चित्त चोरी।
प्रकृत यह ‘गदाधर’ कहत कैसे बनै, अमित महिमा इतै बुद्धि थोरी।।