श्रीकृष्ण कवच

श्रीमहादेव उवाच

त्रैलोक्य विजयस्यास्य कवचस्य प्रजापितः।

       ऋषिश्छन्दश्च गायत्री देवी राधेश्वरः स्वयम्।।

त्रैलोक्य विजयप्राप्तौ विनियोगः प्रकीर्तितः।

       परात्परं च कवचं त्रिषु लोकेषु दुर्लभम्।।

प्रणवो मे शिरःपातु श्रीकृष्णाय नमः सदा।

       पायात् कपालं कृष्णाय स्वाहा पंचाक्षरः स्मृतः।।

कृष्णेति पातु नेत्र च कृष्ण स्वाहेति तारकम्।

       हरये नम इत्येवं भ्रूलतां पातु मे सदा।।

ॐ गोविन्दाय स्वाहेति नासिकां पातु संततम्।

       गोपालाय नमो गण्डौ पातु मे सर्वतः सदा।।

ॐ नमो गोपांगनेशय कर्णौ पातु सदा मम।

       ॐ कृष्णाय नमः शश्वत् पातु मे{धरयुग्मकम्।।

ॐ गोविन्दाय स्वाहेति दन्ताली मे सदावतु।

       ॐ कृष्णाय दन्त रन्ध्रं दन्तोर्ध्व वली सदावतु।।

ॐ कृष्णाय स्वाहेति जिह्विकां पातु मे सदा।

       रासेश्वाराय स्वाहेति तालुके पातु मे सदा।।

राधिकेशाय स्वाहेति कण्ठं पातु सदा मम।

       नमो गोपांगनेशाय वक्षः पातु सदा मम।।

ॐ गोपेशाय स्वाहेति स्कन्ध पातु सदा मम।

       नमः किशोरवेशाय स्वाहा पृष्ठं सदावतुः।।

उदरं पातु मे नित्यं मुकुन्दाय मम सदा।

       ॐ हीं क्लीं कृष्णाय स्वाहेति करौ पादौ सदामम।।

ॐ विष्णवे नमो बाहु मंग्यं पातु सदा मम।

       ॐ हीं भगवते स्वाहा नखरं पातु मे सदा।।

ॐ नमो नारायणायेति रख रन्ध्रं सदावतु।

       ॐ हीं हीं पद्मनाभाय नाभिं पातु सदा मम।।

ॐ सर्वेशाय स्वाहेति कंकालं पातु मे सदा।

       ॐ गोपीरमणाय स्वाहा नितम्बं पातु मे सदा।।

ॐ गोपीरमण नाथाय पादौ पातु सदा मम।

       ॐ हीं श्री रसिकेशाय स्वाहा सर्व सदावतु।।

ॐ केशवाय स्वाहेति मम केशान् सदावतु।

       नमः कृष्णाय स्वाहेति ब्रह्मरन्ध्रं सदावतु।।

ॐ माधवाय स्वाहेति लोमानि मे सदावतु।

       ॐ हीं रसिकेशाय स्वाहा सर्व सदावतु।।

परिपूर्णतयः कृष्णः प्राच्यां मां सर्वदावतु।

       स्वयं गोलोकनाथो मामाग्नेय दिशिरक्षतु।।

पूर्णब्रह्मस्वरूपश्च दक्षिणे मां सदावतु।

       नैऋत्यां पातु मां कृष्णः पश्चिमे पातु मां हरिः।।

गोविन्दः पातु मां शश्वद् वायर्व्या दिशि नित्यशः।

       उत्तरे मां सदा पातु रसिकानां शिरोमणिः।।

ऐशान्यां मां सदा पातु वृन्दावन विहार कृत्।

       वृन्दावती प्राणनाथः पातु मामूर्ध्वदेशतः।।

सदैव माधवः पातु बलिहारी महाबलः।

       जले स्थले चान्तरिक्षे नृसिंहः पातु मां सदा।।

स्वप्ने जागरणे शश्वत् पातु मां माधवः सदा।

       सर्वान्तरात्मनिर्लिप्तो रक्ष मां सर्वतो विभुः।।

इति ते कथितं वत्स सर्व मन्त्रैघ विग्रहम्।

       त्रैलोक्य विजयं नाम कवचं परमाद्भुतम्।।

मया श्रुतं कृष्ण वक्त्रत् प्रवक्तव्यं न कस्यचित्।

       गुरुमभ्यर्च्य विधिवत कवच धारयेत् तु यः।।

कण्ठे वा दक्षिणे बाहौ सो{पि विष्णुर्न संशयः।

       स च भक्तो वसेद् यत्र लक्ष्मीर्वाणी वसेत ततः।।

यदिस्यात् सिद्ध कवचो जीवन्मुक्तो भवेत्त सः।

       निश्चितं कोटिं वर्षाणां पूजायाः फलमाप्नुयात्।।

राजसूय सहस्राणि बाजपेय शतानि च।

       अश्वमेधायुतान्येव नरमेधायुतानि च।।

महादानानि यान्येव प्रादक्षिण्यं भुवस्तथा।

       त्रैलोक्यविजयस्यास्य कलां नार्हन्ति षोडशीम्।।

व्रतोपवास नियमाः स्वाध्यायोध्ययनं तपः।

       स्नानं च सर्व तीर्थेषु नास्यार्हन्ति कलामपि।।

सद्धित्वममरत्वं च दास्यत्वं श्रीहरेरपि।

       यदि स्यात् सिद्ध कवचः सर्वप्राप्नोति निश्चितं।।

स भवेत् सिद्धि कवचो दशलक्षं जपेत यः।

       यो भवेत् सिद्ध कवचः सर्वज्ञ स भवेद ध्रुवम्।।

इदं कवचमज्ञात्वा भजेत कृष्णं सुमन्दधीः।       

कोटि कल्प प्रजाप्तोपि न मन्तः सिद्धिदायकः।।

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