ब्रह्म जिसकी आराधना करे वो श्रीराधा
प्रेम का मूर्त स्वरूप है श्रीराधा
“देंन बधाई चलो आली,
भानु घर प्रकटी हैं लाली।
घर घर मंगल छायो है आज,
कीरति नें लाली जाई है आज।
राधा रानी ने जन्म लियौ है।
सब सुखदानी ने जनम लियौ है॥
भानु दुलारी ने जनम लियौ है।
कीर्ति कुमारी ने जनम लियौ है॥
आज धन्य हुई जा रही है माता धरित्री, “बरसाना” जैसा “प्रेम-नगर” अपनें मैं पाकर। आज आदिशक्ति ब्रह्म की शक्ति बरसानें में प्रकट हुयी है। ब्रह्म की शक्ति का केंद्र है राधा ! कृष्ण की आल्हादिनी शक्ति है, यह बृषभान की लली। कीर्तिरानी की गोद में जो आज साक्षात सूर्य का तेज और शक्तिपुंज है, श्रीकृष्ण की समस्त शक्तियों का केंद्र यही तो है। धन्य है वो गोद, जिसमें श्रीराधा खेल रही हैं। धन्य है वो आँचल, जिस आँचल में वो आल्हादिनी शक्ति प्रकट हुयीं हैं। आज बरसानें के अधिपति श्री बृषभान जी के महल के पालनें में एक दिव्य कन्या लेटी हुयी हैं, तपते सुवर्ण के समान रँग है उसका, उसीके चरण कमलो के दर्शन की लालसा में बरसानें के हर भवन में देवर्षि नारद देखते जा रहे हैं। जब से श्रीराधा रानी का प्राकट्य हुआ है, इस बरसानें में सब के भवन महल सदृश ही लगते हैं और बरसानें के अधिपति बृषभान जी नें सबके भवनों में हीरे और पन्नें जड़वा दिए हैं। श्रीराधा ही ब्रज की अधिष्ठात्री देवी हैं। संपूर्ण ब्रजमंडल की धरा ब्रजेश्वरी श्रीराधा रानी की है। “व्यवहारिकी” प्राकट्य लीला में श्रीराधा प्राकट्य स्थली (जन्मभूमि) बरसाना है। प्राचीन शास्त्रों में इसका नाम “वृहत्सानुपुर” बताया गया है। इसी बरसानें में दिव्य भाद्रपद शुक्ल अष्टमी को मध्यान्ह के समय में बरसा था यह अलौकिक दिव्य प्रेम रस।
“कृष्ण की आल्हादिनी शक्ति है, श्रीराधा”
नंदनंदन श्रीकृष्ण के कुलगुरु महर्षि शाण्डिल्य जी श्रीकृष्ण के प्रपौत्र श्री वज्रनाभ जी को “आल्हादिनी” शक्ति का रहस्य समझाते हुए कहते हैं कि ब्रह्म की तीन मुख्य शक्ति हैं – द्रव्य शक्ति, क्रिया शक्ति और ज्ञान शक्ति। द्रव्य शक्ति यानि महालक्ष्मी, क्रिया शक्ति यानि महाकाली और ज्ञान शक्ति यानि महासरस्वती। पर हे वज्रनाभ ! ये तीन शक्तियाँ ब्रह्म की बाहरी शक्ति हैं, पर एक प्रधान और इन तीनों से दिव्यातिदिव्य शक्ति हैं, जो ब्रह्म की निजी शक्ति है, जिसे ब्रह्म भी बहुत गोप्य रखता है उसे कहते हैं “आल्हादिनी” शक्ति। आल्हाद यानि कि आनन्द का सिंधु और आनंद की तरंग। हे वज्रनाभ ! ये तीनों शक्तियाँ इन आल्हादिनी शक्ति की सहचरी हैं, क्योंकि द्रव्य किसके लिए? आनन्द के लिए ही ना? क्रिया किसके लिए? आनन्द ही उसका उद्देश्य है ना?
और ज्ञान का प्रयोजन भी आनन्द की प्राप्ति ही है। इसलिये आल्हादिनी शक्ति ही सभी शक्तियों का मूल हैं। सुख का मूल भी प्रसन्ता और आनंद रस ही है और समस्त जीवों के लिये यही लक्ष्य भी हैं। वेदों नें कहा है कि “रसो वै सः” “सः” यानि “वह”- वह यानि ब्रह्म अर्थात ब्रह्म रस रूप है। महर्षि शाण्डिल्य कहते हैं कि ब्रह्म अपनी ही आल्हादिनी शक्ति से विलास करता रहता है। ये सम्पूर्ण सृष्टि उन आल्हादिनी और ब्रह्म का विलास ही तो है। सही में देखो तो सर्वत्र आल्हादिनी ही नृत्य कर रही हैं। यही ब्रह्म की आत्मा हैं। यही सब शक्तियों के रूप में विराजित हैं, यही सीता, यही लक्ष्मी, यही काली, सबमें इन्हीं का ही अंश है। श्रीराधारानी प्रेम की।स्वामिनी आल्हादिनी ब्रह्म रस प्रदायिनी हैं।परात्पर परब्रह्म यानि ईश्वर का एक नाम “आत्माराम” भी है। वो ब्रह्म अपनी ही आत्मा में रमण करता है, इसलिये उसे “आत्माराम” कहा गया है। कृष्ण ब्रह्म हैं और उनकी आत्मा है राधा। ब्रह्म की आत्मा का नाम ही है राधा।
स्वयं ब्रह्म जिसकी आराधना करतें हैं वह हैं “राधा”। ब्रह्म के प्रेम नें ही आकार ले लिया है राधा के रूप में। प्रेम का मूर्तिमंत स्वरूप है श्रीराधा। श्रीराधा प्रेम है, ब्रह्म की प्रेम है राधा। प्रेम और ब्रह्म भी एक ही हैं। दोनों में कोई अंतर नही है। उसी प्रेम की उच्च भूमि में विराजमान हैं ये दोनों अनादि काल से, इसलिये राधा कृष्ण दोनों एक ही हैं। ये दो लगते हैं, पर हैं नही। प्रेम ब्रह्म से भी बड़ा है, तभी तो वह ब्रह्म केवल प्रेम के लिए अवतार लेकर आता है। प्रेम का सिद्धान्त बड़ा ही अटपटा है, यहाँ एक और एक “दो” नहीं होते, न एक और एक “ग्यारह” ही होते हैं, यहाँ तो एक और एक “एक” ही होते हैं, ये प्रेम का अपना गणित है।
“हे राधे वृषभानभूप तनये, हे पूर्ण चंद्रानने”
एक ही तत्व के दो रूप हैं राधा और कृष्ण। कृष्ण चन्द्र हैं और राधा भी चन्द्र हैं। श्रीराधा रानी के हृदय में जो प्रेम का सागर उमड़ता रहता है, उस प्रेम सागर में से प्रकटें चन्द्र है – श्रीकृष्ण। श्रीकृष्ण के हृदय समुद्र में जो संयोग वियोग कि लहरें चलती और उतरती रहती हैं, उसी समुद्र में से प्रकटीं चन्द्र है – श्रीराधा।
दोनों ही चकोर हैं और दोनों ही चन्द्रमा। कौन क्या है? कुछ नही कहा जा सकता। इसे इस तरह से माना जाए कि राधा ही कृष्ण है और कृष्ण ही राधा है। दोनों का नित्य एकत्व है।
राधा पूर्णशक्ति हैं – श्रीकृष्ण पूर्ण शक्तिमान हैं;
श्रीराधा मृगमद गन्ध हैं – श्रीकृष्ण मृगमद हैं;
श्रीराधा दाहिका शक्ति हैं – श्रीकृष्ण साक्षात अग्नि हैं।
श्रीराधा प्रकाश हैं – श्रीकृष्ण तेज हैं;
श्रीराधा व्याप्ति है – श्रीकृष्ण आकाश हैं;
श्रीराधा ज्योत्स्ना हैं – श्रीकृष्ण पूर्ण चन्द्र हैं;
श्रीराधा आतप हैं – श्रीकृष्ण सूर्य हैं;
श्रीराधा तरंग हैं – श्रीकृष्ण जल निधि हैं।
इसप्रकार वे दोनों नित्य एक स्वरूप हैं, पर लीला रस के आस्वादन के लिये नित्य ही उनके दो रूप हैं।
वस्तुतः एक ही परपूर्ण नित्य सच्चिदानन्द मय परम प्रेम तत्त्व श्रीकृष्ण ही आस्वाद्य, आस्वादक और आस्वादन बनकर लीलारत हैं। इसलिये कभी श्रीराधा प्रियतम श्रीकृष्ण के दिव्य स्वरूप में विलीन होकर उनके हृत्पद्म पर विराजित दिखायी देती हैं, कभी सर्वात्म-समर्पण करके प्रियतम श्रीकृष्ण की आराधिका बनी उनकी सेवा में संलग्न रहकर उनको सुख देने में ही अपना परम सौभाग्य मानती हैं। कभी उनकी आराध्या बन जाती हैं और श्रीकृष्ण स्वयं उनकी सर्वविध सेवा करने में ही परम सुख का अनुभव करते हैं एवं कभी श्रीराधाकृष्ण युगलरूप में विराजित होकर अनन्त विश्व ब्रह्माण्ड के महान सिद्ध एवं अतुलनीय ऐश्वर्य तथा विभूति सम्पन्न सुरेश्वरों एवं मुनीश्वरों के हाथों पूजा-अर्चना ग्रहण करते हैं।
ब्रम्हवैवर्त पुराण में भगवान श्रीकृष्ण ने अपने और श्रीराधा के अभेद का प्रतिपादन करते हुए कहा है कि श्रीराधा के कृपा कटाक्ष के बिना किसी को मेरे प्रेम की उपलब्धि ही नहीं हो सकती। वास्तव में श्रीराधा कृष्ण एक ही देह हैं। श्रीकृष्ण की प्राप्ति और मोक्ष दोनों श्रीराधाजी की कृपा दृष्टि पर ही निभ्रर हैं।
दोऊ सदा एक रस पूरे।
एक प्रान, मन एक, एक ही भाव, एक रँग रूरे।
एक साध्य, साधनहू एकहि, एक सिद्धि मन राखैं।
एकहि परम पवित्र दिय रस दुहू दुहुनि कौ चाखैं।
एक चाव,चेतना एक ही, एक चाह अनुहारै।
एक बने दो एक संग नित बिहरत एक बिहारै।
“प्रेम तत्व ही राधा तत्व है”
महर्षि शांडिल्य श्रीवज्रनाभ जी को इस प्रेम रहस्य को समझाते हुए कहते हैं कि “प्रेम की उस उच्चावस्था में अद्वैत नही घटता? प्रेम की लीला विचित्र है, प्रेम की गति भी विचित्र है। इस प्रेम को बुद्धि से नही समझा जा सकता है, इसे तो हृदय के झरोखे से ही देखा जा सकता है। जो इस प्रेम रहस्य को समझ जाता है, वह योगियों को भी दुर्लभ “प्रेमाभक्ति” को प्राप्त करता है। प्रेमाभक्ति का अंशमात्र भी हृदय में उतर जाने से ही भक्तों का ह्रदय विशाल हो जाता है और इतना विशाल कि सर्वत्र उसे अपना प्रियतम ही दिखाई देता है, कण कण में, नभ में, थल में, जल में। क्या ये प्रेम का चमत्कार नही है ? इसी प्रेम के बन्धन में स्वयं सर्वेश्वर परात्पर परब्रह्म भी बंधा हुआ है। यही इस “श्रीराधाचरित्र” की दिव्यता है। इस प्रेमा भक्ति रस के आगे ज्ञान, योग, कर्मकाण्ड और मुक्ति भी फीकी है।”
वास्तविक प्रेम क्या है, प्रेम किसे कहते हैं इस जगत को यह बात समझाने हेतु और विरह वियोग की पराकाष्ठा का दर्शन कराने के लिए ही ब्रह्म की प्रेमस्वरूपा श्रीराधारानी अपने प्रिय श्रीधाम वृंदावन, गिरीराज गोवर्धन, यमुनाजी और अपनी प्यारी सखियाँ सहित इस धरा पर “लीला” के लिए प्रकट हुई ताकि पृथ्वीवासी दुःखी मनुष्य, आशा पाश में बंधा जीव, महत्वाकांक्षा की आग में झुलसता जीव, श्री युगल सरकार की प्रेममयी प्रेमपूर्ण लीलाओं को देखकर सुनकर और गाकर योगियों को भी दुर्लभ “प्रेमाभक्ति” को जान सके। जगत में दिव्य प्रेम का प्रकाश करनें के लिये ही श्रीराधा रानी का अवतार हुआ है। प्रेममूर्ति श्रीयुगल सरकार की अनेक दिव्य लीलाओं का प्रयोजन मात्र उमंग और आनन्द ही होता है। इस प्रेम पथ में तो जो भी होता है, वो सब प्रेम के लिए ही होता है, प्रेम बढ़े, और बढ़े बस यही उद्देश्य है।
वेद – वेदान्त और पुराणों का सम्पूर्ण वर्णन करके बताया जा सकता है। उनके गूढ़ प्रतिपादित तत्व का वर्णन विद्वानों को दुष्कर नही हैं, पर श्रीराधाकृष्ण के पारलौकिक प्रेम का वर्णन करने में वे भी अपने आपको असक्षम और असहाय महसूस करते हैं। शब्दों के साधकों का भी शब्द साथ छोड़ देते हैं क्योंकि प्रेम, वाणी का विषय ही नही है, ये शब्दातीत है। प्रेम तो अनुभूति का विषय है। ये तो बस प्रेमसागर में उतरकर उसमें अवगाहन और आनंद लेने का विषय है। गूँगे के स्वाद की तरह है ये प्रेम। गूँगे को गुड़ खिलाओ और पूछो- बता कैसा है ? क्या वो कुछ बोल कर बता पायेगा ? हाँ वो नाच कर बता सकता है, वो उछल कूद करके बता सकता है, पर बोले क्या ?
“प्रेम” उस ब्रह्म को भी नचानें कि हिम्मत रखता है। इसी बृज भूमि में अहीर कन्याओं गोपियों नें छछिया भर छाछ पर नचाया है ब्रह्म को और “माखन खिलानें के बहानें से” उस ब्रह्म को अपनी बाहों में भर कर, उस सुख को लूटा है, जिस सुख कि कल्पना भी ब्रह्मा रूद्र इत्यादि भी नही कर सकते। उन गोपियों के आगे वो ब्रह्म नाचता है, ये है प्रेम देवता का प्रभाव।
वेद का मार्ग “ज्ञान” का मार्ग है, “वेद” के मार्ग पर चलना कण्टक पथ पर चलना है। कर्मकाण्ड में नीरस नियम विधि के बन्धन में बंधना पड़ता है। प्रेमाभक्ति “वेणु” मार्ग है, यह राजपथ है।
इस मार्ग पर कुछ करना भी नही होता है, बस इस मार्ग पर आना होता है और बस सहज आनंदमग्न होकर चलना होता है, अगर तुम रास्ते भूल भी जाओ तो भी सम्भालनें वाला मार्ग में तुम्हे हर पल हर पग में सम्भालता रहेगा। इस मार्ग में बस भावसिक्त होकर भीगना होता है, अवगाहन करना होता है। प्रेमा भक्ति परम धर्म है। प्रभु केवल प्रेम से ही रिझते हैं। शास्त्रों में भी सिद्धांत आया है कि ‘हरि व्यापक सर्वत्र समाना, प्रेम ते प्रकट होहिं मैं जाना।’ और ,”प्रभु केवल प्रेम पियारा” इस प्रेमाभक्ति के माध्यम से उस प्रभु प्रेम और प्रभु कृपा की प्राप्ति होती है जिसे पाने के लिए शिव सनकादि नारद ब्रह्मा आदि सब ललचाते हैं।
श्रीराधा नाम की अनंत महिमा
राधा साध्यं, साधनं यस्य राधा।
मंत्रो राधा, मन्त्रदात्री च राधा।।
सर्वं राधा, जीवनम् यस्य राधा।
राधा राधा वाचितां यस्य शेषम।।
अर्थात् : राधा साध्य है उनको पाने का साधन भी राधा नाम ही है। मन्त्र भी राधा है और मन्त्र देने वाली गुरु भी स्वयं राधा जी ही है। सब कुछ राधा नाम में ही समाया हुआ है। और सबका जीवन प्राण भी राधा ही है। राधा नाम के अतिरिक्त ब्रम्हांड में शेष बचता क्या है ?
श्रीराधारानी के नाम का इतना प्रभाव की सभी देवता और यहाँ तक की साक्षात् भगवान भी स्वयं राधाजी को ही भजते है, जपते है। आपने कभी किसी भगवान को किसी महाशक्ति के पैर दबाते हुए देखा है? साक्षात भगवान श्रीकृष्ण राधारानी के चरणो में लोट लगते है, उनके चरण चापन करते हैं। श्रीराधा नाम का जो आश्रय ले लेते है, उनके आगे भगवन विष्णु सुदर्शन चक्र लेकर चलते है। और पीछे भगवान शिव जी त्रिशूल लेकर चलते है। जिसके दांये स्वयं इंद्र वज्र लेकर चलते है और बाएं वरुण देवता छत्र लेकर चलते है। ऐसा प्रभाव है, श्रीराधा नाम का।
भूमि तत्व जल तत्व अग्नि तत्व पवन तत्व,
ब्रह्म तत्व व्योम तत्व विष्णु तत्व भोरी है।
सनकादिक सिद्ध तत्व आनंद प्रसिद्ध तत्व, नारद सुरेश तत्व शिव तत्व गोरी है ॥
प्रेमी कहे नाग किन्नर का तत्व देख्यो,
शेष और महेश तत्व नेति-नेति जोरी है ।
तत्वन के तत्व जग जीवन श्रीकृष्ण चन्द्र,
कृष्ण हू को तत्व वृषभानु की किशोरी है।
श्रीकिशोरी जी ही परात्पर परब्रह्म श्रीकृष्ण की सर्वेश्वरी हृदयेश्वरी और प्रणेश्वरी हैं। श्रीहरिप्रिया श्रीराधा नाम की महिमा का स्वयं श्रीकृष्ण ने इस प्रकार गान किया है- “जिस समय मैं किसी के मुख से ’रा’ अक्षर सुन लेता हूँ, उसी समय उसे अपना उत्तम भक्ति-प्रेम प्रदान कर देता हूँ और ’धा’ शब्द का उच्चारण करने पर तो मैं प्रियतमा श्री राधा का नाम सुनने के लोभ से उसके पीछे-पीछे दौड़ लगा देता हूँ।”
ब्रज के रसिक संत श्रीकिशोरी अली जी ने इस भाव को इसप्रकार प्रकट किया है :
आधौ नाम तारिहै राधा।
‘र’ के कहत रोग सब मिटिहैं, ‘ध’ के कहत मिटै सब बाधा॥
राधा राधा नाम की महिमा, गावत वेद पुराण अगाधा।
अलि किशोरी रटौ निरंतर, वेगहि लग जाय भाव समाधा॥
श्रीराधारानीजी की दयालुता और उनकी अहेतुकी कृपा का एक बड़ा ही भावुक प्रसंग है कि एक बार श्रीराधा-कृष्ण निधिवन से आ रहे थे कि अचानक कान्हा की नजर श्रीराधा जी के चरणों पर पड़ गई, जिन पर आज कुछ अधिक ही ब्रजरस लग गई थी। श्रीश्यामसुंदर ने श्रीप्रिया जी से कहा कि आज आपके चरणों में रज कुछ ज्यादा ही लग गई है। अतः आप जमुनाजी में अपने चरण पखार लेना। किशोरीजी ने श्रीकृष्ण की इस बात पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी और वह उसी प्रकार आनंदमग्न होकर चलती रही।
श्रीयमुना जी के तट पहुंचने पर यशोदानंदन फिर बोले, हे राधे आप यमुनाजी में अपने चरणों को धो लीजिए। श्रीनंदलाल के कई बार आग्रह करने पर बृषभानलली ने इस बार साफ इनकार कर दिया। जब श्रीकृष्ण ने इसका कारण पूछा तो श्रीजी ने बहुत ही सुंदर उत्तर दिया कि एक बार जो मेरे चरणों से लग जाता है, फिर मैं उसे कभी अलग नहीं करती, कभी दूर नहीं करती, कभी नहीं छोड़ती, कभी नहीं बिसराती।
आज मेरी सर्वेश्वरी श्रीराधारानी जी ने मुझ अल्पज्ञ, मतिमंद, कदाचारी और अकिंचन को, जो उनकी चरणरज के योग्य नहीं है, अपनी अहेतुकी की कृपा बरसाकर धन्य धन्य किया है कि आज मुझे अपनी स्वामिनी के प्रकाट्य दिवस पर उनके पावन चरित्र को स्मरण और भजन का सुअवसर मुझे प्राप्त हुआ है।
जो भी मनुष्य श्रद्धा प्रेमभाव से श्रीराधा नाम सुनता भजता गाता सुमिरिन करता है, श्रीराधा जी का चिन्तन मनन करता है, उसके हृदय में प्रेम का प्राकट्य होकर श्रीराधा रानी की कृपा अवश्य प्राप्त होती है।
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Radha hi ke sandhiviched naam ki maxima krishnaji dwaara bataayi gayi
Ati uttam