भगवान विष्णु के वामन अवतार जयंती ‘श्रीवामन द्वादशी’ पर विशेष आलेख

दानवेंद्र बलि की दानशीलता से द्रवित हो द्वारपाल बन गए विष्णुवतारी वामन

जब जब होई, धरम कै हानि।
बाढ़हि असुर, अधम अभिमानी।।
करहि अनीति, जाई नहीँ बरनी।
सिदही विप्र, धेनु सुर धरनी।।
तब तब प्रभु धरि, विविध शरीरा।
हरहिं कृपा निधि, सज्जन पीरा।।

अर्थात : जब जब धर्म का ह्रास होता है और नीच अभिमानी राक्षस बढ़ जाते हैं, और वे ऐसा अन्याय करते हैं कि जिसका वर्णन नहीँ हो सकता। ब्राह्मण, गौ, देवता और पृथ्वी कष्ट पाते हैं, तब-तब वे कृपानिधान प्रभु, भाँति-भाँति के (दिव्य) शरीर धारण कर, सज्जनों की पीड़ा हरते हैं।
भगवान शिव द्वारा माता पार्वती को बताए गए भगवान के अवतार के उक्त कारणों के अनुसार भगवान विष्णु ने विभिन्न मन्वंतरों, कल्पों और युगो में अनेक अवतार लेकर अत्याचारी दुराचारी आक्रांताओं से पृथ्वी, प्रकृति और सज्जनों को कष्ट से मुक्ति दिलाने हेतु अवतरित होते हैं। भगवान विष्णु त्रिदेवों (तीन महा देवताओं) में से एक हैं। निर्माण की योजना के अनुसार, वे ब्रह्माण्ड के निर्माण के बाद, उसके विघटन तक उसका संरक्षण करते हैं। जब मानव अन्याय और अधर्म के दलदल में खो जाता है, तब भगवान विष्णु उसे सही रास्ता दिखाने हेतु अवतार ग्रहण करते हैं।

हमें पुराणों में भगवान विष्णु के 24 अवतारों का वर्णन मिलता है, लेकिन अनेक स्थानों पर विशेषतया 10 अवतारों की चर्चा और महिमा अधिक आती है। “चौबीस अवतारों” में भगवान वामन की गणना 15वीं हैं और “दशावतारों” में वह पांचवें अवतार माने जाते हैं। दशावतारों में वामन विष्णु के पहले ऐसे अवतार माने गए हैं, जो मानव रूप में (बौने ब्राह्मण के रूप में) प्रकट हुए। वामन ही त्रेता युग के पहले विष्णु अवतार भी माने जाते हैं।

विभिन्न पुराणों में वर्णित-अंकित कथाओं के अनुसार महर्षि कश्यप का विवाह दक्ष प्रजापति कि दो पुत्रियों दिति और अदिति से हुआ था। अदिति से उत्पन्न संतान सुर अथवा देवता कहलाए तथा दिति से उत्पन्न संतान असुर दैत्य अथवा राक्षस कहलाए। कश्यप-अदिति वंश यानी कि देवताओं को वृहस्पतिदेव गुरु मिलें और कश्यप-दिति वंश यानी कि दानवों को शुक्राचार्य गुरु मिल गये l
कश्यप-दिति पुत्र राक्षसराज हिरण्यकश्यपु के पुत्र प्रह्लाद को पूर्वजन्म के कर्मफलों व संस्कारों के अधीन जन्म-मरण व कर्मफल की मीमांसा का ज्ञान हो गया था तथा गर्भावस्था में माँ से सुने नारद मुनि के उपदेशों के कारण से, वह परमात्मा पर अगाध विश्वास रखने वाला हो गया था। अतः भक्तराज प्रह्लाद ने अपने पिता के अन्याय व अनीतियों विरूद्ध विद्रोह किया और और उसे सन्मार्ग पर लाने का प्रयत्न किया। उसकी ज्ञान व भक्ति के प्रभाव से भगवान विष्णु ने नृसिंह रूप में अवतार लेकर हिरण्यकश्यपु के अंत के साथ ही उसके अत्याचारों का भी अंत किया। हिरण्यकश्यपु के मरने के बाद प्रह्लाद राजा बनें, परन्तु पिता को मिथ्या प्ररेणा देने वाले दैत्यों-असुरों के गुरु शुक्राचार्य को उन्होंने अपना गुरु व आचार्य बनाए रखाl अतः प्रह्लाद, प्रेरणा के स्रोत अर्थात वेदों के विद्वानों को अपने राज्य में नहीं ला सकें। दैत्यों के गुरू व आचार्य शुक्राचार्य जी भौतिकवादी थे, वह सब कुछ प्रकृति से ही, स्वभाववश उत्पन्न हुआ मानता थेl गुरु शुक्राचार्य कर्म की महिमा को तो जानते थे, परन्तु कर्म-अकर्म में भेद करने के लिए बुद्धि विवेक का प्रयोग नहीं करते थे अथवा परमात्मा और उसके ज्ञान की प्रेरणा को न मानते हुए उसकी अवहेलना करते थे। ऐसे आचार्य प्रायः मिथ्या पथ-प्रदर्शन ही करते हैंl अतः प्रह्लाद के पुत्र विरोचन और पौत्र बलि तो कुछ ठीक मार्गों पर चलते रहे परन्तु प्रह्लाद के प्रपौत्र यानी राजा बलि का पुत्र बाण पुनः महा-नास्तिक असुर हो गया। महाभारत में आया है कि :

“बलेश्च प्रथितः पुत्रो बानो नाम महासुरः” (–महाभारत आदि पर्व ६५-२०)

वामन अवतार का कारण  

महर्षि वेदव्यास जी द्वारा दस हजार श्लोकों में लिपिबद्ध वामन पुराण में कूर्म कल्प के वृतान्त का वर्णन और मुख्यरूप से सनातन भगवान विष्णु के दिव्य वामन अवतार से संबंधित कथा, उनके पूजन-विधान और माहात्मय आदि का शिक्षाप्रद और आत्म कल्याणकारी वर्णन है। वामन अवतार कथानुसार, एक बार देव और दानवों के युद्ध में दैत्य पराजित होने लगते हैं। दैत्यराज बलि भी देवराज इंद्र के वज्र से मृतप्राय हो जाते हैं, तो पराजित दैत्य घायलों एवं मृत असुरों को लेकर अस्ताचल चले जाते हैं और दैत्यगुरु शुक्राचार्य अपनी मृत संजीवनी विद्या से बलि और दूसरे दैत्य को भी जीवित एवं स्वस्थ कर देते हैं। राजा बलि के लिए शुक्राचार्यजी एक यज्ञ का आयोजन करते हैं तथा अग्नि से दिव्य रथ, बाण, अभेद्य कवच अर्जित करते हैं, इससे असुरों की शक्ति में वृद्धि हो जाती है और असुर सेना दोबारा से देवताओं की नगरी अमरावती पर आक्रमण करती है, जिसमें दैत्यराज बलि देवराज इंद्र को परास्त कर स्वर्ग पर अधिकार कर लेता है और देवराज इंद्र को देवताओं सहित देवलोक छोड़कर भागना पड़ता है। गुरु शुक्राचार्य देवलोक पर राजा बलि के राज्य को चिरस्थाई करने के लिए और उसके इंद्रत्व को स्थिर करने के लिए सौ अश्वमेध यज्ञों का आयोजन करते हैं, 100 अश्वमेध यज्ञ निर्विघ्न पूर्ण करके राजा बलि नियम सम्मत इंद्र बन जाते।

इंद्र को राजा बलि और दैत्य गुरु शुक्राचार्य की इच्छा का ज्ञान होता है कि राजा बलि इस सौ यज्ञ पूरे करने के बाद स्वर्ग को प्राप्त करने में सक्षम हो जाएंगे, तब इंद्र भगवान विष्णु की शरण में जाते हैं। भगवान विष्णु उनकी सहायता करने का आश्वासन दे देते हैं। इधर पराजित इंद्र की दयनीय स्थिति को देखकर उनकी मां अदिति बहुत दुखी होतीं हैं। अदिति अपने पति महर्षि कश्यप से प्रार्थना करतीं हैं कि हे स्वामी, मेरे पुत्र मारे-मारे फिर रहे हैं, कृपया कोई उपाय कीजिए। महर्षि कश्यप के परामर्श से अदिति अपने पुत्र के उद्धार के लिए फाल्गुन शुक्ल पक्ष में 12 दिन पयोव्रत अनुष्ठान एवं यज्ञ करतीं हैं, जो पुत्र प्राप्ति के लिए किया जाता है। इससे प्रसन्न होकर विष्णु प्रकट होकर बोले- देवी! चिंता मत करो। मैं तुम्हारे पुत्र के रूप में जन्म लेकर इंद्र को उसका खोया राज्य दिलाऊंगा। समय आने पर शंख, चक्र, गदा व पद्मधारी चतुर्भुज पुरुष भगवान विष्णु ने भाद्रपद शुक्ल द्वादशी को श्रवण नक्षत्र के अभिजीत मुहूर्त में अदिति के गर्भ से वामन के रूप में अवतार लिया।

महर्षि कश्यप ऋषियों के साथ वामन का उपनयन संस्कार करतें हैं। वामन बटुक को महर्षि पुलह ने यज्ञोपवीत, अगस्त्य ने मृगचर्म, मरीचि ने पलाश दण्ड, आंगिरस ने वस्त्र, सूर्य ने छत्र, भृगु ने खड़ाऊं, देवगुरु ने जनेऊ तथा कमण्डलु, अदिति ने कोपीन, सरस्वती ने रुद्राक्ष माला तथा कुबेर ने भिक्षा पात्र प्रदान किए। इस प्रकार वामन अवतारधारी श्रीहरिविष्णु ब्रह्मचारी ब्राह्मण का रूप धारण करते हैं। तत्पश्चात भगवान वामन पिता से आज्ञा लेकर असुर-राज बलि के यहां भिक्षा मांगने पहुंच जाते हैं ।
उस समय दानवेन्द्र बलि नर्मदा के उत्तर-तट पर अश्वमेध-यज्ञ में दीक्षित थे। यह उनका अन्तिम अश्वमेध था। छत्र, पलाश, दण्ड तथा कमण्डलु लिये, जटाधारी, अग्नि के समान तेजस्वी वामन ब्रह्मचारी वहाँ पधारे। उनके तेज से यज्ञशाला प्रकाशित हो उठी। बलि, शुक्राचार्य, ऋषिगण आदि सभी उस तेज से अभिभूत अपने आसनों से उठ खड़े हुए। दानवेन्द्र बलि ने उनके चरण धोये, पूजन किया और फिर एक उत्तम आसन पर बिठाकर उनका सत्कार किया तथा प्रार्थना करी कि जो भी इच्छा हो, वे माँग लें। वामन ने बलि के कुल की शूरता, उदारता आदि की प्रशंसा करके कहा कि ‘मुझे अपने पैरों से तीन पद भूमि चाहिये!’। बलि ने बहुत आग्रह किया कि और वे इसके साथ-साथ कुछ और भी माँग लें; पर वामन ने जो माँगना था, वही माँगा था। उन्होंने कहा कि मुझे केवल अपने तीन पग भूमि के अतिरिक्त कुछ भी नहीं चाहिए।

वामनरूपधारी श्रीहरिविष्णु को पहचानकर गुरू शुक्राचार्य ने बलि को सावधान किया कि ‘ये साक्षात विष्णु हैं!’ और समझाया कि इनके छल में आने से तुम्हारा सर्वस्व चला जायगा। बलि स्थिर रहकल बोलें- ‘ये कोई हों, प्रह्लाद का पौत्र देने को कहकर अस्वीकार नहीं करेगा!’ शुक्राचार्य ने बलि को ऐश्वर्य-नाश का शाप दे दिया। इस पर भी बलि ने हाथ में जल लेकर वामन को तीन पग भूमिदान करने का संकल्प ले लिया। संकल्प पूरा होते ही वामन का आकार बढ़ने लगा और वे वामन से विराट हो गए। उन्होंने एक पद में पृथ्वी, दूसरे पग में स्वर्गादि लोक तथा समस्त नभ व्याप्त कर लिया। उनका वाम पद ब्रह्मलोक से ऊपर तक गया। उसके अंगुष्ठ-नख से ब्रह्माण्ड का आवरण तनिक टूट सा गया। ब्रह्मद्रव वहाँ से ब्रह्माण्ड में प्रविष्ट हुआ। ब्रह्मा जी ने भगवान का चरण धोकर, चरणोदक के साथ उस ब्रह्मद्रव को भी अपने कमण्डलु में लेकर रख लिया। वही ब्रह्मद्रव गंगाजी बना।

अब भगवान वामन ने विराट रूप धारण करके दो पदों में ही समस्त पृथ्वीलोक और स्वर्गादि समस्त आकाश-लोक समाकर नाप लिये थे, अतः अब तीसरा पग रखने को कोई स्थान नहीं रह गया था। भगवान वामन ने बलि से कहा हे दानवेंद्र अब बताइए कि मैं क्या नापू और अपना तीसरा पग कहां रखूं? बलि के सामने संकट उत्पन्न हो गया। ऎसे मे राजा बलि ने सोचा कि यदि मैंने अपना वचन नहीं निभाया तो अधर्म होगा। संकल्प करके दान पूर्ण न करने पर भारी अपयश और नरक का भी भागी बनना पड़ेगा। बलि बोला- प्रभु, सम्पत्ति का स्वामी सम्पत्ति से बड़ा होता है। अतः आप कृपा कर अपना तीसरा पग मेरे मस्तक पर रख दीजिए और बलि ने अपना सिर-मस्तक झुकाकर भगवान के आगे कर दिया। वामन भगवान ने वैसा ही किया। जैसे ही प्रभु ने बलि के शीष पर अपना चरण रखा। बलि गरुड़ द्वारा बाँध लिये गये।

दानवेन्द्र बलि द्वारा उनका (वामन) मनोरथ जान लेने के उपरांत भी और अपने गुरु शुक्राचार्य द्वारा सावधान किए जाने के उपरांत भी सब कुछ गंवा चुके बलि को अपने वचन से न फिरते देख, दयामय वामन द्रवित हो गए। बलि के द्वारा अपने वचनपालन और दानशीलता पर अडिग रहने के कारण अत्यन्त प्रसन्नचित्त हो गए और उन्होंने दैत्यराज बलि को वर मांगने को कहा तो बलि ने भगवान को अपने द्वारपाल के रूप में रात-दिन अपने सामने रहने का वचन मांग लिया, वामनरूपी श्रीविष्णु भी अपने वचन का पालन करते हुए, पातललोक में राजा बलि का द्वारपाल बनना स्वीकार कर लिया और साथ ही यह आशीर्वाद भी दिया कि ‘तुम अगले मन्वन्तर में इन्द्र बनोगे! तब तक तुम सुतल / पटल (पाताल-लोक) में निवास करो। मैं नित्य तुम्हारे द्वार पर गदापाणि के रूप में उपस्थित रहूँगा।’ प्रह्लाद के साथ बलि सब असुरों को लेकर स्वर्गाधिक ऐश्वर्यसम्पन्न सुतल लोक में पधारे। भगवान वामन ने बलि को पाताल का अधिपति बना दिया। बाद में दैत्य गुरु शुक्राचार्य ने भगवान वामन के आदेश से वह सौवाँ यज्ञ पूर्ण किया और भगवान ने बलि को अगले मन्वन्तर में इन्द्र बनने का आशीर्वाद देकर कृतार्थ किया।

इस प्रकार महेन्द्र (इन्द्र) को पुनः स्वर्ग का राज्य प्राप्त हुआ। ब्रह्माजी ने भगवान वामन को इंद्र की सुरक्षा हेतु ‘उपेन्द्र’ पद प्रदान किया और वामन भगवान इन्द्र के रक्षक होकर भी अमरावती में अधिष्ठित हुए। बलि के द्वार पर गदापाणि द्वारपाल तो वे बन ही चुके थे। कश्यप-अदिति के पुत्र होने के नाते वामन इन्द्र के छोटे भाई भी थे, अतः इनको दक्षिण भारत में ‘उपेन्द्र’ के नाम से भी जाना जाता है। कई ग्रंथों में तीन पग में सम्पूर्ण पृथ्वी माप लेने के कारण वामन भगवान को तीन पैरों वाला भी दर्शाया गया है। त्रिविक्रम रूप में एक पैर धरती पर, दूसरा आकाश अर्थात् देवलोक पर तथा तीसरा बलि के सिर पर।

वामन जयंती का महत्व व पूजा विधि

सनातन धर्म मान्यता के अनुसार, इस दिन श्रवण नक्षत्र होने पर वामन जयंती का अत्याधिक धार्मिक महत्त्व हो जाता है, और इस वर्ष (30 अगस्त 2020, रविवार तदनुसार भाद्रपद शुक्ल पक्ष द्वादशी) वामन द्वादशी पर श्रवण नक्षत्र की उपस्थिति का दुर्लभ संयोग बन रहा है। अतः इस बार वामन जयंती का अत्यधिक विशेष महत्व और फल है। वामन जयंती के दिन भक्तों को भगवान वामन की मूर्ति अथवा उनके चित्रपट की विधिवत पंचोपचार अथवा षोडशोपचार पूजा अर्चना करनी चाहिए। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, जो जातक पूरे विधि विधान के साथ भगवान वामन की पूजा अर्चना करते हैं और व्रत उपवास रखते हैं, वामन भगवान उनको सभी कष्टों से उसी प्रकार मुक्ति दिलाते हैं जैसे उन्होंने देवताओं को दानवराज बलि के कष्ट से मुक्त किया था। भगवान वामन अपने भक्तों की हर मनोकामनाएं पूरी करते हैं। वे उन्हें सभी प्रकार के सुख और मोक्ष प्रदान करते हैं। वामन द्वादशी को चावल, दही आदि वस्तुओं का दान करने का विधान है, जिसे सबसे उत्तम माना गया है। अतः इस दिन स्वयं फलाहार पर रहकर प्रातः व सायंकाल भगवान का पूजन अर्चन व आरती इत्यादि करके ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए और दान दक्षिणा देकर भी संतुष्ट करना चाहिए।

इस दिन बोनें व्यक्तियों की भी ससम्मान सेवा सुश्रवा और सहायता करके नाना प्रकार से शारीरिक, सामाजिक व आर्थिक यथासंभव सहयोग करना चाहिये।

Comments

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *