अनंत चतुर्दशी पर विशेष

शेष स्वरुप अनंत भगवान को खीर अत्यंत प्रिय है

भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को “अनन्त चतुर्दशी” कहा जाता है। अनंत चतुर्दशी के दिन सात फणों वाले शेष स्वरुप भगवान अनन्त की पूजा का विधान है। आज के दिन भगवान शेष के अनंत स्वरूप की पूजा एवं व्रत करने से व्यक्ति को सभी कष्टों से मुक्ति मिलती है। सौभाग्य, सुख, समृद्धि और ऐश्वर्य की प्राप्ति होती हैं। कहीं-कहीं ऐसा भी वर्णन आता है इस दिन शेषशायी भगवान विष्णु अथवा शेषछत्रधारी भगवान विष्णु के अनंत स्वरूप की पूजा की पूजा अर्चना की जाती है। ध्यान देने योग्य बात यह है कि दोनों ही मतों में एक बात समान है कि चाहें पूजा साक्षात भगवान शेष की जाए अथवा शेषशायी या शेषछत्रधारी भगवान विष्णु की, भगवान शेष की उपस्थिति दोनों ही मतों में समान रूप से है। अतः प्रधानता भगवान शेष की ही दृष्टिगोचर होती है। वैसे भी भगवान विष्णु अथवा भगवान शेष में कोई विभेद नहीं है, वे तो निराकार ब्रह्म के दो स्वरूप हैं। इस दिन अनन्त भगवान की पूजा करके संकटों से रक्षा करने वाला अनन्तसूत्र बांधा जाता है। इस दिन विधि-विधान पूर्वक व्रत करने से मनुष्य के पाप नष्ट होकर, उसके सारे दुख दर्द और कष्ट मिट जाते हैं और उसे सुख शांति और समृद्धि की प्राप्ति होती है। कहा जाता है कि लगातार 14 वर्षों तक यह व्रत करने से व्यक्ति को मोक्ष की प्राप्ति होती है।

कल्याणाराधितं देवं सर्व कल्याण कारकम्।
वंदे शेषावतारं तं शेष लक्षण संयुतम्।।

शास्त्रों में कहा गया है कि जब सृष्टि का लय होता है तब भी जो शेष रह जाता है, वही भगवान शेष है। क्योंकि किसी भी कार्य का दृष्टा होना भी अनिवार्य है। श्रीमद्भागवत के पांचवें स्कंध के 25 वें अध्याय में कहा गया है कि भगवान शेष के ईक्षण मात्र से ही सृष्टि का व्यापार क्रम चलता रहता है और जड़ प्रकृति पुनः चैतन्य होकर सृष्टि निर्माण में प्रवृत्त होती है। यह कार्य विधि भगवान शेष के द्वारा ही होती है। उपनिषदों और वेदांत के ब्रह्मसूत्र में भी वर्णन है कि भगवान शेष द्वारा ही सृष्टि के कृतित्व, पालकत्व एवं निवारकत्व की क्रियाएं संपादित होती हैं। अतः भगवान शेष ही ब्रह्म है ऐसा माना गया है। अतः भगवान शेष ही इस संसार के विधाता, पोषक एवं संहर्ता है। भगवान शेष द्वारा ही सृष्टि के उदभव एवं पालन संपादित होता है। श्रीमद्भागवत पुराण में वर्णन आता है कि भगवान शेष के ध्यान में सुर असुर गंधर्व सिध्द विद्याधर मुनिगण लीन रहते हैं। जिनके श्रीअंग में से तुलसी की मनोहर गंध सुवासित होती रहती है। गले में वैजयंती माला शोभायमान हैं। जिनके एक कर्ण में कुंडल है, कटी भाग में स्वर्ण की विशाल करधनी धारण किये हैं।

ब्रह्मांड नायक परात्पर परब्रह्म भगवान विष्णु के आधारभूत शैय्या रूप भगवान शेषनाग ने त्रेता युग में सूर्यवंशी राजा दशरथ के तीसरे पुत्र और भगवान श्री राम के छोटे भाई लक्ष्मण के रूप में साकेत धाम अयोध्या में अवतार लिया और द्वापर युग में श्रीवसुदेवजी की सातवीं संतान और श्रीकृष्ण के बड़े भाई भगवान बलभद्र के रूप में ब्रज मंडल में अवतार लिया।

अनंत चतुर्दशी पूजा विधि :

अनंत चतुर्दशी के दिन सुबह स्नान करके स्वच्छ वस्त्र धारण करें और पूजा स्थान में बैठकर कलश स्थापित करें। भगवान शेष अथवा शेषनाग की शैय्या पर लेटे भगवान विष्णु अथवा शेष भगवान रूपी छत्र के नीचे विराजित भगवान विष्णु की मूर्ति अथवा चित्र रखकर और हाथ में जल लेकर अनंत चतुर्दशी पूजा एवं व्रत का संकल्प करें। व्रत का संकल्प लेने के लिए निम्न मंत्र का उच्चारण करें :

‘ममाखिलपापक्षयपूर्वकशुभफलवृद्धये श्रीमदनन्तप्रीतिकामनया अनन्तव्रतमहं करिष्ये’

इसके पश्चात पूजा स्थान में भगवान अनंत के समक्ष हल्दी लगे कच्चे सूत में 14 गांठें लगाकर बनाए गए “अनंत सूत्र” को रखकर निम्न मंत्र से भगवान अनंत का ध्यान स्मरण प्रार्थना और पूजा करें :

नमस्ते देव देवेश नमस्ते धरणीधर।
नमस्ते सर्वनागेन्द्र नमस्ते पुरुषोत्तम।।
न्यूनातिरिक्तानि परिस्फुटानि।
यानीह कर्माणि मया कृतानि।।
सर्वाणि चैतानि मम क्षमस्व।
प्रयाहि तुष्ट: पुनरागमाय।।
दाता च विष्णुर्भगवाननन्त:।
प्रतिग्रहीता च स एव विष्णु:।।
तस्मात्तवया सर्वमिदं ततं च।
प्रसीद देवेश वरान् ददस्व।।

इसके बाद ‘ॐ अनन्ताय नम:’ मंत्र से भगवान अनंत तथा अनंत सूत्र की पंचोपचार अथवा षोडशोपचार विधि से पूजा करें। तत्पश्चात आम पत्र, नैवेद्य, गंध, पुष्प, धूप, दीप आदि से भगवान अनंत की पूजा करें। भगवान विष्णु को पंचामृत, खीर, पंजीरी, केला और मोदक आदि प्रसाद चढ़ाएं। भगवान को पूजन सामग्री भोग नैवेद्य आदि समर्पित करते समय “ॐ अनन्ताय नम:” मंत्र का उच्चारण करते रहे। पूजनोपरांत मंत्र पढकर “अनन्त सूत्र” को हाथ में बांध लें (पुरुष दाएं हाथ में और महिलाएं बाएं हाथ में रक्षासूत्र बांधें) रक्षासूत्र बांधते समय इस मंत्र का जाप करें :

अनन्तसंसारमहासमुद्रे मग्नान् समभ्युद्धर वासुदेव।
अनन्तरूपे विनियोजितात्मामाह्यनन्तरूपाय नमोनमस्ते।।

इसके बाद अनंत चतुर्दशी की कथा सुनें और अथवा पढें। फिर कपूर या घी के दीपक से भगवान अंनत की आरती करें। पूजा आरती एवं कथा के पश्चात किसी ब्राह्मण को नैवेद्य (भोग) में निवेदित पकवान देकर स्वयं सपरिवार प्रसाद ग्रहण करें। व्रत करने वाले व्यक्ति को बिना नमक वाले भोज्य पादार्थों का ही सेवन करना चाहिये। अनंत चतुर्दशी पर यदि आप विधि विधान से पंचोपचार व षोडशोपचार पूजन और व्रत न भी कर पाए तो श्रद्धा भक्ति सहित अनंत भगवान को तुलसी पत्र डालकर खीर का भोग अवश्य लगाएं। इससे भी भगवान की कृपा आप पर बनी रहेगी और आपकी समस्याएं दूर होंगी।

अनंत चतुर्दशी पूजा व व्रत का महत्व

इस दिन अनन्त भगवान की पूजा करके संकटों से रक्षा करने वाला अनन्तसूत्र बांधा जाता है। कहा जाता है कि जब पाण्डव जुए में अपना सारा राज-पाट हारकर वन में कष्ट भोग रहे थे, तब भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें अनन्त चतुर्दशी का व्रत करने की सलाह दी थी। धर्मराज युधिष्ठिर ने अपने भाइयों तथा द्रौपदी के साथ पूरे विधि-विधान से यह व्रत किया तथा अनन्तसूत्र धारण किया। अनन्त चतुर्दशी-व्रत के प्रभाव से पाण्डव सब संकटों से मुक्त हो गए।

अनंत चतुर्दशी व्रत की कथा

सत्ययुग में सुमन्तु नाम के एक मुनि थे। उनकी पुत्री शीला अपने नाम के अनुरूप अत्यंत सुशील थी। सुमन्तु मुनि ने उस कन्या का विवाह कौण्डिन्य मुनि से किया। कौण्डिन्य मुनि अपनी पत्नी शीला को लेकर जब ससुराल से घर वापस लौट रहे थे, तब रास्ते में नदी के किनारे कुछ स्त्रियां अनन्त भगवान की पूजा करते दिखाई पडीं। शीला ने अनन्त-व्रत का माहात्म्य जानकर उन स्त्रियों के साथ अनंत भगवान का पूजन करके अनन्तसूत्र बांध लिया। इसके फलस्वरूप थोडे ही दिनों में उसका घर धन-धान्य से पूर्ण हो गया।

एक दिन कौण्डिन्य मुनि की दृष्टि अपनी पत्नी के बाएं हाथ में बंधे अनन्तसूत्र पर पडी, जिसे देखकर वह भ्रमित हो गए और उन्होंने पूछा-क्या तुमने मुझे वश में करने के लिए यह सूत्र बांधा है? शीला ने विनम्रतापूर्वक उत्तर दिया- जी नहीं, यह अनंत भगवान का पवित्र सूत्र है। परंतु ऐश्वर्य के मद में अंधे हो चुके कौण्डिन्य ने अपनी पत्नी की सही बात को भी गलत समझा और अनन्त सूत्र को वशीकरण करने का सूत्र समझकर तोड दिया तथा उसे आग में डालकर जला दिया। इस जघन्य कर्म का परिणाम भी शीघ्र ही सामने आ गया। उनकी सारी संपत्ति नष्ट हो गई। दीन-हीन स्थिति में जीवन-यापन करने में विवश हो जाने पर कौण्डिन्य ऋषि ने अपने अपराध का प्रायश्चित करने का निर्णय लिया। वे अनन्त भगवान से क्षमा मांगने हेतु वन में चले गए। उन्हें रास्ते में जो मिलता वे उससे अनन्तदेव का पता पूछते जाते थे। बहुत खोजने पर भी कौण्डिन्य मुनि को जब अनन्त भगवान का साक्षात्कार नहीं हुआ, तब वे निराश होकर प्राण त्यागने को उद्यत हुए। तभी एक वृद्ध ब्राह्मण ने आकर उन्हें आत्महत्या करने से रोक दिया और एक गुफा में ले जाकर चतुर्भुज अनन्तदेव का दर्शन कराया।

भगवान ने मुनि से कहा- तुमने जो अनन्तसूत्र का तिरस्कार किया है, यह सब उसी का फल है। इसके प्रायश्चित हेतु तुम अनन्त-व्रत का पालन करो। इस व्रत का अनुष्ठान पूरा हो जाने पर तुम्हारी नष्ट हुई सम्पत्ति तुम्हें पुन: प्राप्त हो जाएगी और तुम पूर्ववत् सुखी-समृद्ध हो जाओगे। कौण्डिन्य मुनि ने इस आज्ञा को सहर्ष स्वीकार कर लिया। भगवान ने आगे कहा- जीव अपने पूर्ववत् दुष्कर्मोका फल ही दुर्गति के रूप में भोगता है। मनुष्य जन्म-जन्मांतर के पातकों के कारण अनेक कष्ट पाता है। अनन्त-व्रत के सविधि पालन से पाप नष्ट होते हैं तथा सुख-शांति प्राप्त होती है। कौण्डिन्य मुनि ने अनन्त-व्रत का नियमपूर्वक पालन करके न केवल शीघ्र ही खोई हुई समृद्धि को पुन: प्राप्त कर लिया अपितु अपनी पत्नी शीला सहित चौदह वर्ष तक निरंतर अनंत चतुर्दशी व्रत का नियम पूर्वक पालन करते हुए सपत्नीक मोक्ष प्राप्त किया।

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