अपने पूर्वजों के प्रति श्रद्धा ही श्राद्ध है

आज अश्विन कृष्ण प्रतिपदा तदनुसार बृहस्पतिवार, 3 सितंबर से पितृपक्ष यानि महालय श्राद्ध शुरु हो रहे हैं, जो अश्विन अमावस्या तदनुसार 17 सितंबर, गुरूवार तक चलेंगे। भारतीय परंपरा में श्राद्धों का विशेष महत्व माना जाता है। इसे महालया पार्वण श्राद्ध भी कहते हैं। श्रद्धा भाव से पितरों का आवाह्न् करने पर पितृ प्रसन्न् होते हैं और सुखी जीवन के लिए आर्शीवाद देते हैं। श्राद्ध पक्ष को पितृ ऋण से मुक्ति का सुगम मार्ग कहा जाता है। अपने पूर्वजों के प्रति श्रद्धा ही श्राद्ध है। मृत्यु के बाद श्राद्ध ही तो श्रद्धा है। पितृपक्ष में देव पूजा को महत्व न देकर पितृ पूजन को श्रेष्ठ माना गया है। भगवान श्रीराम, अन्य देवगण, युद्यिष्ठिर तथा समस्त ऋषि मुनि आदि भी इन दिनों पितरों का आवाहन कर पितृ ऋण से मुक्त होते रहे हैं। इन दिनों में तामसिक प्रवृत्ति के भोजन प्याज लहसुन मांस मदिरा का सेवन निषेद्य है। अहंकार का त्याग कर नम्रता धारण कर तथा शांत मन से ही श्राद्ध करना चाहिए। श्राद्ध करने के बाद गौमाता को भोजन देना चाहिए। फिर पक्षी के निमित्त अन्न देना चाहिए। तब कुटम्बी जन एवं मित्रगणों के साथ भोजन करना उत्तम है। श्राद्ध न करने पर पितृ आशा रहित हो जाते हैं। इसीलिये परिवार के मृत व्यक्तियों की आत्मा की तृप्ति व शांति के लिये श्राद्ध जरूरी होता है।

मनुष्य लोक से ऊपर पितृ लोक है, पितृ लोक के ऊपर सूर्य लोक है एवं सूर्य लोक के ऊपर स्वर्ग लोक है। आत्मा जब अपने शरीर को त्याग कर ऊपर उठती है, तो वह सबसे पहले पितृ लोक में जाती है, वहाँ उसको पूर्वज मिलते हैं। अगर उस आत्मा के अच्छे पुण्य हैं तो उसके पूर्वज भी उसको प्रणाम कर अपने को धन्य मानते हैं कि इस अमुक आत्मा ने हमारे कुल में जन्म लेकर हमें धन्य किया। इसके आगे आत्मा अपने पुण्य के आधार पर सूर्य लोक की तरफ बढती है। यदि और अधिक पुण्य हैं, तो आत्मा सूर्य लोक को भेद कर स्वर्ग लोक की तरफ चली जाती है, लेकिन लाखों करोड़ों में से कोई कोई आत्मा ही ऐसी होती है, जो परमात्मा में समाहित हो जाती है, जिसे दोबारा जन्म नहीं लेना पड़ता यानि कि उसे मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है। मृत शरीर के लिए पुत्रादि कुटुम्बी जन मोक्ष हेतु कामना करते हैं। परन्तु कलियुग में मोक्ष दुर्लभ है। अतः शरीर मुक्त वह आत्मा अपने पूर्व कर्मो के आधार पर अनेक योनियों में जन्म लेती रहती है। इसीलिए माता-पिता एवं पूर्वजों की स्मृति में श्राद्ध किया जाता है। इस श्राद्ध को करने से पुत्र पौत्रादि पितृ ऋण से मुक्त होते हैं तथा मृतात्माओं को योनि स्वरूप शान्ति प्राप्त होती है। जिस प्रकार अग्नि द्वारा देवताओं को आहुति प्राप्त होती है। उसी प्रकार कव्य एवं हव्य द्वारा पितरों को अन्न् एवं जल प्राप्त होता है। पितरों की शान्ति एवं प्रसन्नता हेतु श्राद्ध किया जाता है।

इसके उलट सूक्ष्म व्यापक शरीर में स्थित पूर्वज यदि यह देखते हैं और महसूस करते हैं कि हमारे परिवार के लोग न तो हमारे प्रति श्रद्धा रखते हैं और न ही इन्हें हमसे कोई प्यार या स्नेह है और न ही किसी भी अवसर पर ये हमको याद करते हैं, न ही अपने ऋण चुकाने का प्रयास ही करते हैं, तो ये आत्माएं दुखी होकर अपने वंशजों को श्राप दे देती हैं, जिसे “पितृ-दोष” कहा जाता है।

जिसके परिणाम स्वरूप मानसिक अवसाद, व्यापार में नुकसान, परिश्रम के अनुसार फल न मिलना, विवाह या वैवाहिक जीवन में समस्याएं, कैरियर में समस्याएं या संक्षिप्त में कहें तो जीवन के हर क्षेत्र में व्यक्ति और उसके परिवार को बाधाओं का सामना करना पड़ता है। पितरों के रुष्ट होने से या पितृ दोष होने पर अनुकूल ग्रहों की स्थिति, गोचर, दशाएं होने पर भी शुभ फल नहीं मिल पाते, कितना भी पूजा पाठ, देवी, देवताओं की अर्चना की जाए, उसका शुभ फल नहीं मिल पाता। पितरों के नाऱाज होने से व्यक्ति की भौतिक एवं आध्यात्मिक उन्नति बाधित होने लगती है।

शरीर छोड़ने पर ही आत्मा की 3 गति होती है।

प्रथम : शुभ कार्यों के फल स्वरुप संदेह रहित पुरुष की आत्मा मोक्ष पद को प्राप्त करती है। किन्तु हमें यह ज्ञान प्राप्त नहीं हो पाता कि कौन पितर मुक्त हो गया है। इसलिए श्राद्ध करते हैं। श्राद्धकर्म का पुण्यफल कर्ता को अवश्य प्राप्त होता है।

द्वितीय : जिनके पुण्य कर्म अधिक पाप कर्म कम हैं। वह चन्द्रमंडल के ऊपर अग्निख्वातादि पितरों के लोक में पहुंचते हैं। वेद मंत्रों का आवाहन करने पर ये पितर सूक्ष्मरुप से श्रद्धास्थल में आकर हवि पदार्थों से संतुष्ट हो जाते हैं। अत: श्राद्ध आवश्यक है।

तृतीय : जिन आत्माओं में पाप का संबंध अधिक मात्रा में है वे तत्काल वायु शरीर धारण कर यमलोक में जाते हैं। कर्मानुसार नई-नई योनियों में शरीर धारण करते हैं। पशु, यक्ष, सर्प, दनुज, मानव नहीं मालूम किस रुप में हैं। वे इन योनियों में शरीर धारण करते हुए श्राद्ध में दिये गये अन्न् से तृप्त होते हैं तथा श्राद्ध कर्ता कुटम्बी जनों से प्रसन्न होकर आर्शीवचन देते हैं।

वेदों में वर्णित है कि :

प्रेतं पितृश्रच निर्दिष्य भोज्यं यत्प्रियमात्मन:।
श्रद्धया दीयते यत्र तत~श्राद्धं परिकीर्तितम।।

तर्पण : जल ही जीवन है। अत: जीवित मनुष्यों की तरह मृत आत्मा को भी जल की आवश्यकता होती है। अर्थात उन्हें तृृप्त करने हेतु ऋषि मुनियों के साथ-साथ तर्पण किया जाता है। तर्पण में सभी मृतात्माओं (माता-पिता, चाचा चाची, ताऊ ताई, नाना नानी, मामा मामी, सास ससुर मित्र, गुरू आदि) का नाम उच्चारित किया जाता है। किंतु श्राद्ध में मनुष्य तीन पीढ़ी तक पिण्डदान देने का अधिकारी होता है। अन्य लोगों को पिण्ड दान देने का अधिकार शास्त्र मर्यादा में नहीं है। वसु स्वरुप, रुद्र स्वरुप व आदित्य स्वरुप तीन रुपों में पितरों का स्मरण किया जाता है।

यं माता-पितरौ कलेशं सहेते सम्भवे नृणाम।
न तस्या निष्कृति: कर्तु सक्यां वर्ष शतैरपि।।

अति आवश्यक है श्राद्ध  : शास्त्रों में मूल ग्रंथ निर्णय सिन्धु में कहा गया है कि बद्रीनाथ धाम, गया, पुष्कर, कुरुक्षेत्र, हरिद्वार, मथुरा अयोध्या आदि अनेक धार्मिक क्षेत्रों व तीर्थों में पितरों का पिण्ड दान, तर्पण व श्राद्ध आदि करने पर पितरों को मोक्ष प्राप्त होता है। यह सत्य है कि तीर्थों में पिण्ड दान से मोक्ष की प्राप्ति कही गई।

विशेष तीर्थों स्थलों पर पिण्ड दान, तर्पण व श्राद्ध आदि करने से श्राद्ध कर्ता को अपने घर में पितर पिण्ड दान करने की आवश्यकता नहीं होती किन्तु तर्पण आवश्यक है। पितरों के नाम का भोजन व तर्पण जल आदि अवश्य देना चाहिए। तात्पर्य यह है कि सदैव श्रद्धा विधि से श्राद्ध अवश्य ही करना चाहिए।

श्राद्ध न करने से श्रद्धा का नाश होता है। अत: पितरों की असंतुष्टि से गृह कलेश व विभिन्न कष्टों में वृद्धि होती है। अतः प्रत्येक माह की अमावस्या और आश्विन मास की कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा से अमावस्या तक अर्थात पितृपक्ष के पंद्रह दिनों में श्राद्ध अवश्य करना चाहिए। अमावस्या को पितरों के निमित्त पवित्रता पूर्वक बनाया गया भोजन तथा चावल बूरा ,घी एवं एक रोटी गाय को खिलाने से पितृ दोष शांत होता है।

माता-पिता अर्थात पितरों का श्राद्ध वर्ष में दो बार करने का विधान शास्त्रों में आता है। एक बार हिंदू पंचांगानुसार मृत्यु की तिथि को दूसरी बार पितृपक्ष श्राद्धों में देह त्याग की तिथि के दिन किया जाता है। अपने पितरों को प्रणाम कर उनसे प्रण होने की प्रार्थना करें और अपने द्वारा जाने-अनजाने में किये गए अपराध व उपेक्षा के लिए क्षमा याचना करें।

देवल ऋषि के वचनानुसार :

पूर्वाह्णे दैविकं कर्मत्वपराह्णे तु पैतृकम्।
एकोदिष्टन्तु मध्याह्ने प्रातर्वृद्धिनिमित्तकम्।।

अर्थात : पूर्वाह्न में दैविक कर्म तथा पितृकर्म को अपरान्ह में करना चाहिए। एकोदिष्ट श्राद्ध को मध्यान्ह में और वृद्धि श्राद्ध प्रातः करना चाहिए। अतः महालय निमित्त तक पार्वण श्राद्ध में अपराह्न व्यापिनी तिथि को लेते हुए समस्त कर्म करें।

न तत्र वीरा जायन्ते निरोगा नशतायुषाः।

न च श्रेयोऽधिगच्छन्ति यत्र श्राद्धं विवर्जितम्।।श्राद्धमेतन्न कुर्वाणो नरकं प्रतिपद्यते
अर्थात : श्राद्ध नहीं करने से घर में निरोगी वीर पुत्र नहीं होते और अल्पायु होते हैं, किसी भी प्रकार का कल्याण नहीं होता। इस परम पवित्र काल में श्राद्ध न करने से नरक में जाना पड़ता है।
आयुः प्रजा धनं विद्यां स्वर्गं मोक्षं सुखानि च। राज्यं चैव प्रयच्छन्ति प्रीताः पितृगणा नृणाम्।।
अर्थात : पितरों को प्रसन्न रखने से आयु पुत्र धन विद्या स्वर्ग मोक्ष सुख तथा राज्य प्राप्त होता है अतः पितरों के तृप्ति के लिए महालय में अपने पितरों का श्राद्ध अवश्य करें।

84 लाख योनियों में से मनुष्य योनि में जन्म लेना श्रेष्ठ कहा गया है। आत्मा परमात्मा का एक अंश है। हर शरीर में आत्मा का निवास रहता है। आत्मा अजर एवं अमर है। शरीर नाशवान है। जन्म – मृत्यु ध्रुव सत्य है।

अतः हम मनुष्य को न केवल अपने परिवार की मृत आत्माओं अथवा पितरों का श्राद्ध व तर्पण करना चाहिए बल्कि शास्त्रों में तो यहां तक कहा गया है कि

ये जीवा च येमृता ये जाता ये च यज्ञिया:
तेभ्यो धृत कुल्ये तु मधुधारा व्युन्दंती। (अथर्ववेद)

अपने से छोटे व समकक्ष जीवित भ्राता मित्र व सेवक आदि की सहायता व भरण पोषण तथा जीवित गुरू, माता पिता, दादा दादी आदि (बड़े भाई, चाचा चाची, ताऊ ताई, सास ससुर, मामा मामी नाना नानी आदि सहित) आदरणीय व बड़े बुजुर्गों की सेवा एवं श्रद्धापूर्वक आज्ञापालन करना और कर्तव्यपालन करना भी भौतिक व आध्यात्मिक रूप से अति आवश्यक है। बादशाह शाहजहां ने भी हिन्दुओं के इस श्राद्ध तर्पण विधि तारीफ करते हुए कहा था कि :

एक पिशर तो अजब मुसलमानी
जिन्दा जान मब आब तरसानी
आफरी बाद हिन्दुवां हर वाब
मुर्दागारां देहन्द दायम आब।।

शाहजहां ने अपने पुत्र औरंगजेब द्वारा अपने को कैद किए जाने पर उसे धिक्कारते हुए कहा कि एक तू है जो अपने जिंदा बाप को भी पानी तक के लिए तरसा रहा हैं और एक ओर वह सनातन हिंदू आर्य संस्कृति धन्य है, जिस आर्य संस्कृति के अनुसार जीवित लोगों का सेवा सत्कार तथा मृत लोगों का श्राद्ध किया जाता है।

जर्मनी के प्रो. एफ. मैक्समूलर ने भी भारतीय संस्कृति में श्राद्ध परंपरा को बहुत अधिक महत्व दिय जाने और श्राद्ध विधि की बहुत अधिक सराहना की है।

Comments

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *