ब्रज सांझी पर्व की अनूठी परंपरा पर विशेष आलेख :

ब्रज ‘सांझी लीला उत्सव’ परम्परा में झलकती है ‘युगल सरकार की दिव्य लीलाऐं’

नवीन गोपनागरम् नवीनकेली लम्पटम्
अर्थात : नवीन गोप सखा नटवर, नवीन खेल खेलने के लिए लालायित नित्य नूतन लीला बिहारी द्वारा इस धरा पर उतारे गये साक्षात अपने निजधाम “गोलोक धाम – ब्रजमंडल” के बृज 84 कोस में हर रोज नये त्योहार व उत्सव मनाये जाते है। यह ब्रजमंडल श्रीराधाकृष्ण की समस्त उन यादों को संजोए है, जो उन्होंने द्वापरयुग में अपनी अलौकिक लीला के दौरान की थी। ब्रज क्षेत्र में हाल ही में “बूढ़ी लीला महोत्सव” का करहला के महारास के साथ समापन हुआ ही है और अब एक कलात्मक सौंदर्य बोध का संदेश देने वाले प्रसिद्ध पर्व “सांझी उत्सव” का आरम्भ हो गया है। ब्रज की देवालयी संस्कृति में भी इसका अहम स्थान है।

पितृ पक्ष यानि कि आश्विन कृष्ण प्रतिपदा (3 सितम्बर) से प्रारंभ यह सांझी उत्सव आश्विन कृष्ण अमावस (17 सितम्बर) तक चलेगा। श्राद्ध पक्ष में करीब सोलह दिनों तक चलने वाले इस सांझी महोत्सव में ब्रजमंडल के अधिकांश मंदिरों में फूलों व रंगों से सांझी बनाते हैं, जिसमें राधा माधव की लीलाओं और बृज 84 कोस परिक्रमा में आने वाली लीला स्थलियों का चित्रण सांझी के रूप में उकेरा जाता है और ब्रज के अधिकतर हर घर में रसिक भक्तजन और कुंवारी कन्याओं द्वारा गाय के गोबर से सांझी बनाकर खेली जाती रही है। ब्रजवासी कुंवारी कन्याएं दीवार पर श्रीराधा कृष्ण की लीलाओं का चित्रांकन करती रही है और घर आंगन एवं तिवारे में श्रीराधारानी के स्वागत के लिए सांझी सजाती रहीं हैं।

ग्रंथों में वर्णन आता है कि सांझी द्वापर कालीन है और श्रीराधारानी अपने पिता श्रीवृषभानुजी के महल के आंगन में क्वार के पितृपक्ष में प्रतिदिन सांझी सजाती थीं, जिससे कि उनके भाई श्रीदामा का मंगल हो। इसके लिए वे फूल एकत्रित करने के लिए वन और बाग़ बगीचों में जाती थी। इस बहाने राधा-कृष्ण (प्रिया प्रियतम) का मिलन भी हो जाता था। एक मान्यता यह भी है कि राधिका को प्रसन्न करने के लिए कान्हा ने फूलों की सांझी बनाई थी और फिर श्रीराधा-कृष्ण ने यह सांझी खेली थी। ब्रज साहित्य में प्रचुर मात्रा में सांझी के अनेक सुंदर पद मिलते हैं। अनेक संप्रदायों के ग्रंथों में भी सांझी लीला से संबंधित श्रीराधाकृष्ण की लीलाओं का भारी मात्रा में बड़ा सुंदर, सरस व सजीव वर्णन मिलता है। ब्रज के यह सांझी के पद, मंदिरों में भी गाए जाते हैं। रसिया रसेश्वरी, ब्रज लोक गीतेश्वरी पुस्तक से संग्रहित यह निम्न गीत सांझी लीला का सजीव प्रमाण है :

सखियन संग राधिका कुंवरि बीनत कुसुम अलियां
एक ही बानिक एक बैस दोऊ हाथन लियैं रंगीली डलियां
एक अनूपम माल बनावति एक बैंनी गूंथत कुंद कलियां
सूरदास गिरधर आय ठाड़े भये मानी है रंग रलियां

अर्थात : श्रीराधे अपनी सखियों के साथ फूलों की कलियां चुन रही हैं और अपने दोनों ही हाथों में रंगीली डलिया लिए हुए हैं। एक सखी अनुपम माला बना रही है और एक सखी कुंद की कला को गूंथ रही है। सूरदास कहते हैं कि उनके गिरधर प्रभु यानी कृष्ण वहां आकर खड़े हो गए हैं।

राधा प्यारी कह्यौ सखिन सौं
राधा प्यारी कह्यौ सखिन सौं, सांझी धरौ री माई
बेटी बहुत अहीरन की तब, आंई लै फूल अथांई  
जब यह जानी श्याम सुंदर जू, कह्यौ सखन समुझाइ
*भैया बछरा देखैं रहियो, लीजो छाक धराइ

सो कहि चले श्याम सुंदर, बर, सखी तहां पहुंचे जाइ
सखी रूप ह्वै मिले सखिन में, फूल लिये हरसाइ
कर सौं कर राधा संग दै कैं, सांझी चीती जाइ
षट रस के बिंजन अरपे तब, मन अभिलाष पुजाइ
कीरति रानी लेति बलैया, बिधि कौं बचन सुनाइ
सूरदास अविचल यह जोरी, सुख निरखत न अघाइ

अर्थात : राधा अपनी प्रिय सखियों से कहती हैं कि वह सांझी बनाएं अतः तभी अहीर की बेटी बहुत से फूल लेकर आ गयी। जब यह बात कृष्ण को पता चली तो वह अपने सखाओं को समझा कर कहते हैं कि अपने बछड़ों का ध्यान रखना और मेरे लिए खाना बचाकर रखना। यह कहकर कृष्ण वहां चले जाते हैं, जहां सारी सखी होती हैं। कृष्ण सखी का रूप धरकर उन सखियों में ही मिल जाते हैं और फूलों को लेकर हर्षाते हैं और राधा के हाथ में हाथ देकर साथ में सांझी बनवाते हैं। फिर सांझी को अनेक प्रकार के व्यंजन चढ़ाए जाते हैं, इससे कीरति मां प्रसन्न होकर बलैया लेती हैं और सूरदास इस जोड़ी को देखकर बहुत खुश होते हैं।

सांझी लीला दर्शन, श्री ललिता सखी मंदिर, ऊंचा गांव


वृंदावन फूलन सों छायौ
चलौ सखी फुलवा बीनन कौं सांझी कौ दिन आयौ
प्रेम मगन ह्नै सांझी चीतौ पचरंग रंग बनायो
वृंदावन हित रूप सखी तुम करिये लाल मन भायौ
(श्रीहित रूपलाल गोस्वामी जी महाराज)

अर्थात : पूरा वृंदावन फूलों से भरा हुआ है और सांझी का दिन आ गया है इसलिए सभी सखियां फूल बीनने जा रहीं हैं और प्रेम में मगन होकर सांझी का चित्र बनायें जा रही है और अब पांच तरह के रंगों से उसे सजाया जाएगा। यह लाल यानी कृष्ण के मन को भी भाता है।


मैं हूं सांझी चीतन हारी
मैं हूं सांझी चीतन हारी
नंदगांव की रहवे वारी
तुमरो नाम सुन्यौ मैं प्यारी
खेलूंगी मैं संग तिहारे, जब तुम देंगी प्यार
दै गलबैंया चली लाड़िली
मुसकाई वह चित चाड़िली
रस भीजीं भई प्रेम माड़िली
श्याम सखी जब सांझी चीतै, देखैं ब्रज की नार
सुंदर सी सांझी चितवायो
सुंदर मीठे गीत गवायो
सुंदर व्यंजन भोग लगायो
मन भाई सी करै आरती, लै कै कंचन थार
ललिता हाव भाव पहिचान्यो
ये तो नंदलाल मैं जान्यो
ऐसोई सबको मन मान्यो
तारी दै दै हंसी सखी सब, आनंद भयौ अपार

सांझी उत्सव, श्री राधा वल्लभ लाल जी मंदिर, श्रीधाम वृंदावन

उसी लीला की स्मृति को को जीवित रखते हुए ब्रज की अविवाहित कन्याएं क्वार मास के कृष्ण पक्ष (पितृ पक्ष) में गाय के गोबर, पुष्प और सूखे रंगों से अपने घरों के आंगनों को सांझियों से सजाती रही हैं। इसके पीछे उनका एक भाव यह भी रहता है कि श्रीराधा कृष्ण उनकी सांझी को निहारने के लिए अवश्य आएगें।

संपूर्ण पितृपक्ष में प्रतिदिन गोधूलि बेला में घर के आंगन में या घर के बाहर दहलीज के ऊपर की दीवार पर या लकड़ी के साफ-स्वच्छ पटरे पर गोबर से पृष्ठभूमि लीपकर तैयार की जाती है। सूर्यास्त से पूर्व सांझी तैयार कर ली जाती है एवं सूर्यास्त के बाद सांझी की आरती की तैयारी की जाती है। गोबर, फूल पत्तियां, पूजन सामग्री व प्रसाद इत्यादि के साथ पद गायन व मंगल गीतों के समूह गायन के लिए ब्रज बालाएं सहज ही जुटती देखीं जाती रहीं हैं। बरखा के विदा होते हुए ‍दिन और शरद के सुखद आगमन की आहट देते दिन इस प्रकृति प्रधान पर्व सांझी के श्रृंगार के लिए अ‍नगिनत रंग-बिरंगे महकते प्रसाधन उपलब्ध करा देते हैं। जो इन कन्याओं की सुप्त कलात्मक अनुभूतियों को संपूर्ण हृदय की शक्ति से अभिव्यक्त करती है। मानव मन की गहनतम अनुभूति की सौंदर्यात्मक अभिव्यक्ति जब किसी अनुकृति के रूप में परिणित होती है तो वह अनुकृति हमारी संस्कृति और लोककला के प्रतीक के रूप में पहचानी जाती है। मानव मन की संवेदनशीलता की गहराई को इन कला प्रतीकों के माध्यम से समझना और भी सरल व सुखद हो जाता है। और यही कला की अभिव्यक्ति जब धर्म के माध्यम से की जाती है तब वह कृति पवित्र और पूजनीय हो जाती है। धर्म ने कला को गंभीरता दी है तो कला ने भी धर्म पर अपने सौंदर्य को न्यौछावर करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी। धर्म का कलात्मक सौंदर्य और कला का धार्मिक स्वरूप पावन और गौरवशाली होता है। इसी खूबसूरत मिलन की देन है बृज संस्कृति से ओतप्रोत सांझी की परम्परा का अनोखा पर्व।

यह पर्व ब्रज चौरासी कोस और उसकी सीमा से लगे उत्तर प्रदेश, राजस्थान व मध्य प्रदेश की कुंवारी कन्याओं का एक अनुष्ठानिक व्रत भी रहा है। जिसका विस्तार संभवत घुमन्तू जातियों द्वारा दिल्ली हरियाणा पंजाब छत्तीसगढ़ व महाराष्ट्र आदि प्रदेशों तक में भी कुछ हेरफेर के साथ मिलता रहा है। आश्विन मास के कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा से मालवा की कुंवारी कन्याएं इस व्रत का शुभारंभ करती रहीं है जो संपूर्ण पितृपक्ष में सोलह दिन तक चलता रहा है। सोलह की संख्‍या यूं भी किशोरियों के लिए विशिष्टता की द्योतक रही है।

पितृपक्ष की प्रतिपदा से आरंभ होकर अमावस्या के अंतिम दिवस तक 16 दिनों में सांझी विभिन्न मोहक आकृतियों को धारण करते हुए अपने पूर्ण निखार से पूरे वर्ष भर दीवार पर सहेज कर रखी जाती रही है। विवाहपर्यन्त इस व्रत को पालन करने वाली गोप कन्याएं अपनी अटूट आस्था, असीम श्रद्धा और अगाध भक्ति से इस व्रत का पालन करते हुए विवाह पश्चात ससुराल से लौटकर अगले वर्ष अपने हाथों से इसे निकाल कर कुछ अनुष्ठानों के साथ नदी में विसर्जित कर इस व्रत का उद्यापन करती रहीं हैं।

श्रीराधावल्लभ मंदिर, वृंदावन में आज भी शुरुआत के करीब 10 दिनों तक अनेक रंग बिरंगे पुष्पों के द्वारा सांझी की रचना की जाती है एवं एकादशी से अमावस्या तक पांच दिनों में रंगों की सांझी बनाई जाती है ! यह उत्सव श्रीराधेरानी से सम्बंधित है इसलिए रसिकों व वैष्णवों का इस उत्सव पर अधिक ममत्व है। श्रीहित रूपलाल गोस्वामी जी महाराज ने अपनी वाणी में बताया है कि प्रियाजी सांझी के माध्यम से संध्या देवी का पूजन करती हैं। वर्षाकाल में संध्या के समय आकाश में रंग बिरंगे बादल छाये रहते हैं, इसलिए सांझी भी अनेक रंगों से बनाई जाती है। संध्या को रजनीमुख भी कहा जाता है इसीलिये इस काल में ही श्री हिताचार्य महाप्रभु श्री हित हरिवंश गोस्वामी जी महाराज ने अपनी वाणी में श्रीयुगल के प्रेम विहार का वर्णन आरम्भ किया। सांझी उत्सव के समय श्रीराधा वल्लभ मंदिर में श्रीहित राधावल्लभ लाल जी महाराज के समाज गायन में सांझी उत्सव के कई पद ठाकुरजी के समक्ष गाये जाते हैं, जिसमे “वन की लीला लाल ही भावे” एवं “फूलन बीनन हौं गयी” ये पद तो नित्य ही श्री जी महाराज को सुनाये जाते हैं।

सांझी में दिन प्रति दिन पूर्णिमा-कमल, प्रतिपदा-मधुवन, तालवन, कुमोदवन, बहुलावन, शांतनु कुंड, राधा कुंड, कुसुम सरोवर, गोवर्धन, रामवन, बरसाना, नंदगाव, कोकिलावन, शेषशायी कोड़ानाथ, वृन्दावन, मथुरा, गोकुल, दाऊजी एवं अन्तिम दिन कोट बनाया जाता है। इसमें राधा-कृष्ण की युगल झांकी होती है। इस सांझी उत्सव रूपी अाराधना पर्व में श्रीराधा कृष्ण के अटूट प्रेममयी रसमयी लीलाओं एवं संवादों को सांझी पदों के रूप में भी गाया जाता है और रसिक वैष्णव भक्त सांझी की आरती भी करते हैं। लोक संस्कृति की महक को बिखेरता ये पर्व नारी के स्वाभिमान को अभिव्यक्त करता यह पर्व श्रीराधाकृष्ण के प्रेम विहार का महान उत्सव है। श्राद्धपक्ष में सांझी उत्सव मनाए जाने की परंपरा का एक संबंध पूर्वजों के प्रति श्रद्धा व्यक्त करना भी है। अतः पितृपक्ष में मनाया जाने वाला यह सांझी लीला उत्सव इस अर्थ में पितरों को भी तृप्ति प्रदान करता है। जिसके अंतर्गत 16 दिनों तक मंदिरों में सांझी चित्रित की जाती है और उसके पद गाए जाते हैं।

श्री सांझी लीला उत्सव, विश्राम घाट, मथुरा

किन्तु अब यह प्रेममय एवं रसमय मधुरातिमधुर सांझी उत्सव परम्परा आधुनिक दौर में बदलते परिवेश के बीच लुप्तप्राय सी होती जा रही है, यहां तक कि ब्रज चौरासी कोस परिक्रमा के कई मंदिरों में भी यह परम्परा आज समय के साथ मात्र सांकेतिक और सिर्फ़ मंदिरों तक में ही सीमित होकर रह गई है। जिन्हें देखने के प्रति भी लोगों में उत्साह कम होता जा रहा है और इस सुमधुर, सौम्य, सुरीले पर्व की गरिमा और उत्कृष्टता आधुनिकता के संवेदनहीन वातावरण में अपनी महक, गमक और चमक खोती जा रही है। शहरी संस्कृति व कॉन्वेन्ट’ शिक्षा के प्रभाव से ब्रज संस्कृति में पली-बढ़ी कन्याओं में भी इस पर्व की इंद्रधनुषी स्मृतियों की ताजगी और मिठास का अहसास कमजोर पड़ता जा रहा है। संवेदनाएं क्षीण होने से विघटन बढ़ रहा है। सांझी उत्सव कला, प्रकृति प्रेम, भक्ति, एकता सौहार्द और सामाजिकता का संदेश वाला पर्व हैं। अतः ये हमारी भावनाओं को जीवंत रखने के लिए बहुत जरूरी है। अतः ऐसे सभी पर्वों को संरक्षण एवं पुनर्जीवित कर भव्यता प्रदान करने की पुरजोर आवश्यकता है।

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