शारदीय नवरात्रि पर्व 17 से 24 अक्टूबर 2020 पर विशेष आलेख :
इस वर्ष शारदीय नवरात्रि पर्व शनिवार 17 अक्टूबर 2020 से शुरू हो रहा है। इस बार नवरात्रि अत्यंत सुख और समृद्धि प्रदान करने वाली होगी। इस शारदीय नवरात्रि की शुरुआत चित्रा नक्षत्र में प्रारंभ हो रही है। इस दिन सुबह सूर्य लग्न में नीच का होगा। यह अत्यंत दुर्लभ घटना है, जो कि लगभग 20 वर्ष बाद हो रही है। इस नवरात्रि में प्रथम दिन घट / कलश स्थापना सुबह 8 बजकर 16 मिनट से 10 बजकर 31 मिनट तक वृश्चिक लग्न के मुहूर्त में, सुबह 11 बजकर 36 मिनट से 12 बजकर 24 मिनट तक अभिजीत मुहूर्त में, दोपहर 2 बजकर 24 मिनट से 3 बजकर 59 मिनट तक कुंभ लग्न के मुहूर्त में और इसके बाद सायं 7 बजकर 13 मिनट से 9 बजकर 12 मिनट तक ऋषभ लग्न के शुभ मुहूर्त में की जा सकती है।
इस साल नवरात्रि पर राजयोग, द्विपुष्कर योग, सिद्धियोग, सर्वार्थसिद्धि योग, सिद्धियोग और अमृत योग जैसे अनेक फलदायक संयोग उपस्थित हो रहे हैं।
आदिशक्ति भगवती ही घर में लक्ष्मी के रूप में स्थित हो समृद्धि व उन्नति प्रदान करती हैं। वही प्रार्थना करने पर संतुष्ट हो विद्या ज्ञान विज्ञान उत्पन्न करती हैं। पुष्प, धूप और गंध आदि से पूजन करके उनकी स्तुति करने पर वे धन, पुत्र, धार्मिक बुद्धि तथा उत्तम गति प्रदान करती हैं। देवी का ध्यान करने से कभी घर में दरिद्रता नहीं आती। किसी प्रकार का अभाव नहीं रहता। ग्रह जनित पीड़ा शांत होती हैं। देवी माँ का स्तवन महामारीजन्य समस्त उपद्रवों का शमन करने वाला है। देवी का अनुष्ठान पूर्वक किया गया पूजन अपने प्रिय जनों के विरह विछोह का हरण करने वाला है। देवी का स्तवन परिवार अथवा संगठन में वैमनस्य शांतकर उसे दूरकर घर परिवार समाज में मित्रता एकता बनाने वाला होता है। किसी भी प्रकार के संकट बंदी ग्रह और युद्ध से मुक्ति और विजय दिलाने वाला है। शत्रुओं का नाश होता है, कुल आनंदित रहता है, कल्याण की प्राप्ति होती है। देवी का ध्यान अध्यात्म प्रदान करने वाला है। देवी की पूजा विधि पूर्वक अथवा बिना विधि जाने भी भक्ति भाव से करने से देवी मां शीघ्र प्रसन्न होकर उसे ग्रहण करती हैं और अपने भक्तों को आशीर्वाद देतीं हैं।
इस प्रकार नवरात्रि में की गई भगवती आराधना के माध्यम से मनुष्य को दैहिक दैविक भौतिक तीनों प्रकार की शक्तियों की प्राप्ति भी होती है और उनका संरक्षण और संवर्धन भी होता है।
एक वर्ष में चार नवरात्रि पर्व आते हैं :
वैसे तो किसी भी देवी देवता की पूजा बारहों महीने चौबीसों घंटे किसी भी अवस्थाओं में की जाये वह कल्याणकारी ही होती है। किंतु फिर भी हर देवी देवता की पूजा के लिये कुछ विशेष माह दिवस वार अथवा मुहूर्त विशेष होते है, जिसमें उनकी पूजा करने वाले भक्तों को उनकी विशेष अनुकंपा की प्राप्त होती है। इसी अनुसार नवरात्रि के 9 दिन शक्ति आराधना यानी देवी की पूजा के लिए विशेष कल्याणकारी माने गए हैं। नवरात्रि शब्द एक संस्कृत शब्द है, जिसका अर्थ होता है ‘नौ रातें’। इन नौ रातों के मध्य, शक्ति / देवी के नौ रूपों की पूजा की जाती है। संभवत कम ही व्यक्तियों को ज्ञात है कि नवरात्रि पर्व वर्ष में चार बार आता है; जो कि चैत्र, आषाढ, अश्विन और पौष मास में शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से नवमी तक मनाया जाता है। हिंदू वर्ष (नव संवत्सर) के प्रथम मास चैत्र की शुक्ल प्रतिपदा से पहली बासंतिक नवरात्रि प्रारंभ होती है, ब्रह्म पुराण के अनुसार, जगत पिता बह्माजी ने इसी दिन सृष्टि / ब्रह्मांड की रचना की थी। फिर चौथे माह आषाढ़ में दूसरी (गुप्त) नवरात्रि पड़ती है। इसके बाद सातवें माह अश्विन में प्रमुख व तीसरी शारदीय नवरात्रि होती है। फिर दसवें माह पौष में चौथी (गुप्त) नवरात्रि होती हैं। इन सभी नवरात्रियों का वर्णन देवी भागवत तथा अन्य धार्मिक ग्रंथों में भी किया गया है।
लेकिन इन चारों में बासंतिक (चैत्र) और शारदीय (अश्विन) नवरात्रि प्रमुख माने जाते हैं। आषाढ़ और पौष मास की नवरात्रियों को गुप्त नवरात्रि कहा माना जाता है। जहां चैत्र और आश्विन नवरात्र में नवदुर्गा यानी कि देवी के नौ रूपों की पूजा होती है वही गुप्त नवरात्रि में दस महाविद्याओं के स्वरूपों की पूजा का विधान है। गुप्त नवरात्रि में तांत्रिक विधि से की गई भगवती आराधना शीघ्र फलदायी होती है किंतु इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि गुप्त नवरात्रि में सिर्फ तांत्रिक विधि से ही पूजा का विधान है, गुप्त नवरात्रों में मांत्रिक विधि से भी की गई देवी पूजा भी मंगलकारी ही होती है।
नवरात्रि उत्सव मनाने का आधार :
आइए अब समझने का प्रयास करते हैं कि नवरात्रि का उत्सव मनाने के पीछे क्या कारण हैं ?
आदिशक्ति पराअम्बा ही भगवती प्रकृति और जगत की आधारभूता है, इन्हीं से समस्त ब्रह्मांड की उत्पत्ति हुई है। वे नित्य स्वरूपा है, विश्वव्यापनी है, संपूर्ण जगत उन्हीं का रूप है, वे नित्य व अजन्मा है। जगदंबा ही सृष्टि, समष्टि और व्यक्ति की आधारभूत है।
छिति जल पावक गगन समीरा।
पंच रचित अति अधम सरीरा।।
भावार्थ : ‘क्षितिज अर्थात पृथ्वी, जल अर्थात वर्षा, पावक अर्थात सूर्य अथवा अग्नि, गगन अर्थात आकाश समीर अर्थात वायुमंडल। इन पांच तत्व से ही हमारे शरीर की रचना हुई है।’
यही पांचों तत्व सृष्टि के कण कण में व्याप्त भगवती प्रकृति और आदिशक्ति के अंग हैं। प्रकृति में संतुलन बनाये रखने के लिए इन पाँच तत्वों में संतुलन परम आवश्यक है। यद् पिण्डे तद् ब्रह्माण्डे। अतः इन पंच महाभूत तत्वों के बिना जीवन संभव नहीं है। भगवती अंबिका ही जगत की उत्पत्ति के समय सृष्टिरूपा, पालनकाल में स्थिति रूपा तथा कल्पान्त के समय संहार रूप धारण करने वाली हैं। शक्ति के बिना शिव भी शव समान ही हैं अर्थात अधूरे हैं। शक्ति के बिना शक्तिमान का कोई अर्थ नहीं है। नवरात्रि उत्सव भगवती प्रकृति माँ-दुर्गा की अवधारणा भक्ति और शक्ति (उदात्त, परम, परम रचनात्मक ऊर्जा) और आवश्यकता का भी प्रतिनिधित्व है और उनकीं पूजा का सबसे शुभ और अवसर माना जाता है। यह पूजा वैदिक युग से पहले, प्रागैतिहासिक काल से चली आ रही है। माता के सभी शक्ति स्वरूपों का महत्व अलग-अलग हैं। लेकिन माता का स्वरूप एक ही है। यही एक शक्ति तत्व अनेक नाम रूपों से प्रतिष्ठित है। भगवती अंबिका देवी नित्य और अजन्मा होते हुए भी सृष्टि रूप में प्रकट होती हैं। वे सनातनी देवी ही समय अनुसार पुनः पुनः प्रकट होकर संपूर्ण विश्व की रक्षा करती हैं। महिषासुर, चिक्षुर, बिडाल, चामर, कराल, अन्धक, धूम्रलोचन, रक्तबीज, चंड, मुंड, शुंभ, निशुंभ, दुर्गम आदि अनेक राक्षसों संहार हेतु आपने अनेक स्वरूप और नाम धारण किए। वही इस विश्व को मोहित करती हैं। वही जगत को जन्म देती हैं। वे ही इस जगत को धारण करती हैं। महाप्रलय के समय महामारी स्वरूप धारण करने वाली वह महाकाली ही इस समस्त ब्रह्मांड में व्याप्त है। वे सर्वेश्वरी और विश्वेश्वरी ही वाराही, नारायणी, वैष्णवी, लक्ष्मी, वे ही माहेश्वरी, शिवा, पार्वती और वे ही ब्राह्मणी, सरस्वती हैं। महाकाली महालक्ष्मी तथा महासरस्वती इसी महादेवी के त्रिविध रूप हैं। दुर्गा के रूप में देवी की ऊर्जा और शक्ति की पूजा की जाती है। देवी लक्ष्मी का रूप ऐश्वर्य और समृद्धि की पूजा करने के लिए समर्पित है। देवी दुर्गा की आराधना कृपा से व्यक्ति जब अहंकार, क्रोध, वासना और अन्य पशु प्रवृत्तियों की बुराइयों पर विजय प्राप्त कर लेता है, वह एक शून्य का अनुभव करता है। यह शून्य आध्यात्मिक धन से भर जाये इस प्रयोजन के लिए, व्यक्ति दैविक आध्यात्मिक, दैहिक भौतिकवादी धन और समृद्धि प्राप्त करने के लिए देवी लक्ष्मी की पूजा करता है। व्यक्ति बुरी प्रवृत्तियों पर विजय और धन प्राप्त कर लेता है, पर वह अभी सच्चे ज्ञान से वंचित है। ज्ञान एक मानवीय जीवन जीने के लिए अति आवश्यक है, भले ही वह सत्ता और धन से कितना ही समृद्ध क्यो न हो। इसीलिए ज्ञान प्राप्ति हेतु देवी सरस्वती की पूजा की जाती है। कला और ज्ञान की प्राप्ति के लिए देवी सरस्वती की पूजा का विधान है। सरस्वती की उपासनायें प्रार्थनायें, आध्यात्मिक ज्ञान की प्राप्ति के उद्देश्य के साथ की जाती हैं।
काली तारा आदि दस महाविद्याओं के रूप में भी आदिशक्ति भगवती प्रकृति प्रतिष्ठित हैं। दुर्गा चंडिका भवानी कात्यायनी गौरी पार्वती गायत्री शाकम्भरी अन्नपूर्णा सीता तथा राधा आदि उन्हीं मां शक्ति के विविध नाम रूप है। पांच ज्ञान इन्द्रियां, पांच कर्म इन्द्रियां और एक मन इन ग्यारह को जो संचालित करती हैं वही परम शक्ति माँ हैं जो जीवात्मा, परमात्मा, भूताकाश, चित्ताकाश।और चिदाकाश के रूप में सर्वव्यापी है। इनकी श्रद्धाभाव से आराधना करके प्राणी चारो पुरुषार्थ धर्म ,अर्थ, काम, मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है। ‘भगवान’ शब्द का संधि विच्छेद करने पर हमें सृष्टि के सभी पाँच तत्व प्रप्त होते हैं। ‘भ’ से भूमि, ‘ग’ से गगन, ‘व’ से वायु, ‘अ’ से अग्नि ‘न’ से नीर (जल विद्युत)। मूलतः एक ही अद्वितीय सत् तत्व सर्वत्र विद्यमान हैं “एकैवाहं जगत्यत्र द्वितीया का ममापरा”। उपासकों रुचि भेद से (रुचियां वैचित्र्यात्) यही तत्व भगवत तत्व के रूप में भी पूजित होता है। अपने संकट और कष्टों से मुक्ति पाने के लिए ब्रह्मा विष्णु महेश सहित सभी देवगण भगवती की शरण में गए, इस अवसर पर उन्होंने महादेवी से अपने स्वरूप का वर्णन करने की प्रार्थना की, इस पर वह बोली- अहं ब्रह्मस्वरूपिणी। मत: प्रकृतिपुरुषात्मकं जगत्। शून्यं चाशून्यं च।’ अर्थात् मैं ब्रह्मस्वरूप हूं। मुझसे ही प्रकृति पुरुषात्मक सशून्य और अशून्य जगत उत्पन्न हुआ है।
जगत जननी जगदंबा की आराधना अति शीघ्र फलदायी होती है क्योंकि जगदंबा रूप मातृत्व है इसीलिए उसकी करुणा की, कृपा की कोई सीमा नहीं है। कुपुत्र पर भी माता का अपार स्नेह रहता है – ‘कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति।’ कितना भी बड़ा अपराध हो जाए फिर भी माता अपने कुपुत्र का भी परित्याग नहीं करती। कलियुग में तो भगवती दुर्गा की उपासना विशेष मंगलकारी और कल्याणकारी है। शास्त्रों में कहा गया है- ‘कलौ चण्ड विनायकौ’ अर्थात कलयुग में गणेशजी व दुर्गाजी की उपासना शीघ्र फलदायी है, क्योंकि गणेशजी विघ्न दूर कर कार्य को पूरा करवाते हैं व दुर्गाजी शक्ति प्रदान करती है जिससे कि उत्साह, कामना व लक्ष्य की प्राप्ति होती है।
नवरात्रि पर्व के पीछे क्या प्राकृतिक, आध्यात्मिक और पौराणिक कारण हैं ? :
नवरात्रि का पर्व मनाने के पीछे अगर प्राकृतिक कारणों की बात की जाए तो हम पाएंगे कि सभी नवरात्रियों के समय ऋतु परिवर्तन होता है। भारत में कई तरह की ऋतुएं हैं जो एक वर्ष को कई खंडों में बांटती है. प्राय भारत में ऋतुओं को 6 भागों में बांटा गया है। वसंत (चैत्र वैशाख, मार्च अप्रैल, Spring) ग्रीष्म (ज्येष्ठ आषाढ़, मई जून, Summer), वर्षा (श्रावण भाद्रपद, जुलाई सितम्बर, Rainy / Monsoon), शरद (आश्विन कार्तिक, अक्टूबर नवम्बर Autumn), हेमंत (मार्गशीर्ष पौष, दिसम्बर से 15 जनवरी Pre Winter), शिशिर (माघ फागुन, 16 जनवरी से फरवरी Winter)। हर ऋतु का एक अलग ही प्रभाव और विशेषता है। किंतु समस्त विश्व में अमूमन 4 मौसम विशेष माने गए हैं; सर्दी, गर्मी, बरसात और बसंत। लेकिन इन चारों में भी गर्मी और सर्दी ही मुख्य खास मौसम माने जाते हैं।
सभी ऋतुओं में वसंत को ‘ऋतुराज’ कहा जाता है और हमारा हिंदू नव वर्ष (नव संवत्सर) एवं प्रथम नवरात्रि पर्व उत्सव वसंत ऋतु से ही प्रारंभ होता है। दूसरा नवरात्रि उत्सव ग्रीष्म ऋतु परिवर्तन के अवसर पर आषाढ़ मास में मनाया जाता है और तीसरा शरद ऋतु में आश्विन मास में एवं चौथा नवरात्रि पर्व शिशिर ऋतु परिवर्तन से पूर्व पौष मास में मनाया जाता है।
आदिशक्ति भगवती प्रकृति रूपी ऋतुओं और जलवायु के परिवर्तन को उत्सव का आधार मानते हुए नवरात्रि का पर्व हर्ष, आस्था और उल्लास के साथ युगों से मनाया जाता रहा है। हम पंचमहाभूतों से बने अपने इस शरीर को स्वस्थ रखने के लिए और कृति एवं प्रकृति द्वारा प्रदत जल अन्न कंद मूल फल फूल, कपास लकड़ी मिट्टी पाषाण धातु तेल खनिज रसायन आदि प्रत्येक जीवनोपयोगी वस्तु प्रदान करने के लिए हम इस नवरात्रि पर्व के माध्यम से भगवती का धन्यवाद ज्ञापन करते हैं और आगामी ऋतुकाल में भी इसी प्रकार से सुरक्षा सुख समृद्धि आदि बनाए रखने के लिए उनकी कृपा प्राप्ति हेतु प्रार्थना करते हैं।
चैत्र और आश्विन नवरात्रि पर्व की समानता :
चैत्र और आश्विन के प्रगट व मुख्य नवरात्रि पर्व के समय गर्मी और सर्दी के मौसम के प्रारंभ से पूर्व प्रकृति में एक बड़ा परिवर्तन होता है। प्रकृति स्वयं ही इन दोनों समय काल पर विशेष रूप से नवरात्रि के उत्सव के लिए तैयार रहती है, तभी तो न उस समय न मौसम अधिक गर्म न अधिक ठंडा होता है। खुशनुमा मौसम इस पर्व की महत्ता को और बढ़ाता है। अगर भोगौलिक आधार पर गौर किया जाए तो वसंत की शुरुआत और शरद ऋतु की शुरुआत, जलवायु और सूरज के प्रभावों का महत्वपूर्ण संगम माना जाता है। मार्च और अप्रैल के जैसे ही, सितंबर और अक्टूबर के बीच भी दिन और रात की लंबाई के समान होती है। तो इस भौगोलिक समानता की वजह से भी एक साल में इन दोनों नवरात्र का विशेष महत्व है। प्रकृति में आए इन बदलाव के चलते मन तो मन हमारे दिमाग में भी परिवर्तन होते हैं। अतः नवरात्रि काल के मध्य स्वास्थ्य और समृद्धि के संरक्षण के लिए भक्तजन उपवास रखते हैं। इस प्रकार नवरात्रि के दौरान व्रत रखकर शक्ति की पूजा करने से शारीरिक और मानसिक संतुलन बना रहता है क्योंकि ॠतु और जलवायु परिवर्तन के समय अनाज पाचन क्रिया को भी प्रभावित करता है और नकारात्मक ऊर्जा को आकर्षित करता हैं। अतः गर्मी और सर्दी दोनों मौसम में आने वाली सौर-ऊर्जा से हम सबसे ज्यादा प्रभावित होते हैं क्योंकि यह फसल पकने की अवधि होती है। मनुष्य को वर्षा, जल, और ठंड से राहत मिलती है। ऐसे जीवनोपयोगी कार्य पूरे होने के कारण दैवीय शक्तियों की आराधना करने के लिए यह समय सबसे उपयुक्त भी है और सर्वोत्तम भी है। नवरात्रि आत्मनिरीक्षण और शुद्धि की भी अवधि है और पारंपरिक रूप से नए उद्यम शुरू करने के लिए एक शुभ समय भी है।
आश्विन नवरात्रि पर्व की प्रधानता :
शरद ऋतु के आश्विन मास में मनाए जाने वाले नवरात्रि की प्रमुखता इसलिए भी है क्योंकि चातुर्मास (वर्षाकालीन चार महीने ‘चौमासे’) और पितृपक्ष/ श्राद्धों में जो कार्य स्थगित किए गए होते हैं, उनके आरंभ के साधनों का पुनः श्रीगणेश इस दिन से होता है।
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जय माता की।।