यहां सामान्य रूप से नवरात्रि पूजा की संक्षिप्त विधि और साथ ही साथ संबंधित श्लोक और मंत्र भी दिये जा रहे हैं। जो व्यक्ति मंत्र श्लोकों का उच्चारण न कर सके तो वे संबंधित देवी देवताओं के बीज मंत्र या जो भी मंत्र श्लोक उस देवी देवता के स्मरण हो जिन्हें बोलने में सुविधा हो तो वे उन्हे भी उच्चारित कर सकते हैं। यदि इसमें भी कठिनाई हो तो केवल नाम उच्चारण अथवा उस देवी देवता का ध्यान करके पंचोपचार/ षोडशोपचार पूजन करें और बिना मंत्र श्लोक के ही जल चंदन रोली मौली अक्षत पुष्प पान फल व नैवेद्य आदि चढ़ाकर पूजा कर सकते हैं। देवी देवताओं का कथन है कि—
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः।।
अर्थात् : जो कोई भक्त हमारे लिए प्रेम से पत्र (यानी पत्ते जैसे तुलसी बेलपत्र दूर्वा आंक पान के पत्ते आदि) पुष्प, फल, तोयं (जल) आदि अर्पण करते हैं, उस शुद्ध-बुद्धि निष्काम प्रेमी भक्त का प्रेमपूर्वक अर्पण किया हुआ वह पत्र-पुष्पादि हम सगुणरूप से प्रकट होकर प्रीति सहित ग्रहण करते हैं।
सनातन धर्म में पांच प्रधान देवी देवता माने गए हैं, जिनको पंचदेव की संज्ञा दी गई है, यह देव पंचायतन भी कहलाती है। यह पंचदेव हैं- गणेश, विष्णु, शिव, दुर्गा एवं सूर्य। किसी भी पूजा यज्ञ अनुष्ठान आदि के अवसर पर इन पंच देवों की पूजा अवश्य करनी चाहिए। इन पांच देवों में से जो भी देवी देवता हमारे ईष्ट हो अथवा जिनकी विशेष पूजा करनी हो, उन्हें मध्य में रखकर पूजा करें।
मानसिक व शारीरिक शुद्धिकरण
पूजा प्रारंभ करने से पूर्व सर्वप्रथम आराधक को स्नान के पश्चात स्वच्छ वस्त्र पहनकर स्वच्छ आसन पर बैठकर उत्तर या पूर्व दिशा की ओर मुंह करके पूजा करनी चाहिए। सबसे पहले हमें अपने मानसिक व शारीरिक शुद्धि हेतु अपने सभी अंगों व पूजा सामग्री पर जल छिड़कना चाहिए। बाएं हाथ में जल लेकर उसे दाहिने हाथ से ढक लें एवं मन्त्रोच्चारण के साथ जल को सिर तथा शरीर पर छिड़कें और पवित्रता की भावना करते हुये निम्न मंत्र का उच्चारण करें :
ॐ अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपिवा।।
यः स्मरेत्पुण्डरीकाक्षं स बाह्यभ्यन्तरः शुचिः।।
ॐ पुनातु पुण्डरीकाक्षः पुनातु पुण्डरीकाक्षः पुनातु।।
आसन शुद्धिकरण : अब पूजा आसन को पवित्र करने के लिये निम्न मंत्र का उच्चारण करें :
ॐ पृथ्वी त्वया धृता लोका देवि त्वं विष्णुना धृता।
त्वं च धारय मां देवि पवित्रं कुरु चासनम्॥ पृथिव्यै नमः आधारशक्तये नमः।
इस मंत्र का भाव यह है कि यह पृथ्वी देवी आप मेरा संपर्क करें।
आचमन : इसके बाद आचमन करें, आचमन न करने पर हमारे समस्त कृत्य व्यर्थ हो जाते हैं। अतः हाथ में जल लेकर निम्न मंत्र से तीन बार आचमन करें :
ॐ केशवाय नमः। ॐ नारायणाय नमः। ॐ माधवाय नमः। फिर ॐ ऋषिकेशाय नमः। बोलकर हाथ धो लें।
तिलक : अब निम्न मंत्र से सभी देवी देवताओं को रोली चंदन चावल से तिलक करने के पश्चात स्वयं का एवं पूजा में सम्मिलित सभी लोगों का तिलक करें
ॐ गन्धद्वारां दुराधर्षां नित्यपुष्टां करीषिणीम्।
ईश्वरीं सर्वभूतानां तामिहोपह्वये श्रियम्॥
रक्षासूत्र : इसके बाद मौली/ कलावा बांधने हेतु निम्न मंत्र का उच्चारण करें :
येन बद्धो बलि राजा, दानवेन्द्रो महाबलः।
तेन त्वां मनुबध्नामि, रक्षंमाचल माचल।।
दीप प्रज्वलन : पूजन प्रारंभ करने हेतु दाहिनी दिशा में अक्षत बिछाकर उस पर ‘ॐ दीप ज्योतिषे नमः’ मंत्र बोलकर शुद्ध देसी घी का दीपक प्रज्ज्वलित करें। दीपक प्रज्ज्वलित कर, ॐ ऋषिकेशाय नमः बोलकर हाथ धो लें एवं गंध व पुष्प, दीपक पर अर्पित कर प्रणाम करें।
संकल्प : किसी भी पूजा दान सत्कर्म आदि से पहले संकल्प करना आवश्यक है। अतः दाएं हाथ में जल अक्षत पुष्प एवं कुछ दक्षिणा आदि लेकर निम्नलिखित मंत्र से पूजा का संकल्प करें :
ॐ विष्णुः विष्णुः विष्णुः, अद्य ब्राह्मणो वयसः परार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे जम्बूद्वीपे भारतवर्षे (देश-प्रदेश शहर ग्राम व मुहल्ले का नाम) प्रमादी नाम विक्रम संवत 2077 सम्वत्सरे आश्विन शुक्ल प्रतिपदे शनिवासरे प्रारभमाणे नवरात्रपर्वणि एतासु नवतिथिषु अखिलपापक्षयपूर्वक श्रुति स्मृत्युक्त पुण्यसमवेत सर्वसुखोपलब्धये संयमादिनियमान् दृढ़ं पालयन् (अपना गोत्र) गोत्रः (अपना नाम) नामाहं सपरिवार भगवत्याः दुर्गायाः प्रसादाय व्रतं विधास्ये।
इसके पश्चात् हाथ का जल पुष्प आदि किसी पात्र में छोड़ दें।
स्वस्तिवाचन : पूजा व शुभ कार्य की सफलता के लिए स्वस्तिवाचन भी आवश्यक माना गया है। स्वस्तिक मंत्र या स्वस्ति मन्त्र शुभ और शांति के लिए प्रयुक्त होता है। स्वस्ति = सु + अस्ति = कल्याण हो। ऐसा माना जाता है कि इससे हृदय और मन मिल जाते हैं। मंत्रोच्चार करते हुए उपस्थित सभी श्रद्धालुओं और आसपास के स्थान पर जल के छींटे डाले जाते हैं तथा यह माना जाता है कि यह जल पारस्परिक क्रोध और वैमनस्य को शांत कर रहा है। स्वस्ति मन्त्र का पाठ करने की क्रिया ‘स्वस्तिवाचन’ कहलाती है। अब निम्न मंत्र से स्वस्तिवाचन करें :
ॐ स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः। स्वस्ति नः पूषाविश्ववेदाः। स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः। स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः।।
प्रथम पूजित गणपति पूजन : गणेश जी को तुलसी नहीं चढानी चाहिए। अब हाथ में दूर्वा पुष्प फल रोली अक्षत आदि लेकर भगवान श्री गणेश जी का स्मरण करें :
ॐ एकदन्ताय विद्महे, वक्रतुंडाय धीमहि, तन्नो बुदि्ध प्रचोदयात।।
वक्रतुण्ड महाकाय सूर्यकोटि समप्रभ। निर्विघ्नं कुरु मे देव सर्वकार्येषु सर्वदा॥
ॐ गजाननं भूतगणादि सेवितं, कपित्थ जम्बूफलसार भक्षितम्, उमासुतं शोक विनाशकारणं, नमामि विघ्नेश्वर पादपङ्कजम्।।
सुमुखश्चैकदन्तश्च कपिलो गजकर्णकः। लम्बोदरश्च विकटो विघ्ननाशो विनायकः।। धूम्रकेतुर्गणाध्यक्षो भालचन्द्रो गजाननः। द्वादशैतानि नामानि यः पठेच्छृणुयादपि।। विद्यारम्भे विवाहे च प्रवेशे निर्गमे तथा। संग्रामे संकटे चैव विघ्नस्तस्य न जायते।।
कलश स्थापना : नवरात्रि में घट स्थापना अथवा कलश स्थापना का विशेष महत्व है। नवरात्रि में प्रथम दिन कलश स्थापना की जाती है। शास्त्रों में कलश को सुख-समृद्धि, ऐश्वर्य और मंगल कामनाओं का प्रतीक माना गया है।
कलशस्य मुखे विष्णु : कंठे रुद्र: समाश्रित।
मूल तस्य, स्थिति ब्रह्मा मध्ये मातगण: समाश्रित:।।
कलश के मुख में भगवान विष्णु, गले में रूद्र, मूल में ब्रह्मा तथा मध्य में देवी शक्ति का निवास माना जाता है। कलश में समस्त देवी देवताओं, चारो वेद, तीर्थो,और समस्त पवित्र नदियों का आह्वान किया जाता है। घट स्थापना के लिए मिट्टी का कलश सर्वश्रेष्ठ होता है, चांदी तांबे कांसे पीतल आदि धातु से बना कलश भी उपयोग किया जा सकता है परंतु स्टील, लोहे, एल्युमिनियम या प्लास्टिक का कलश नहीं होना चाहिए। कलश स्थापना मंदिर के पास उत्तर-पूर्व दिशा में करनी चाहिए। अब उस स्थान को अच्छे से गंगाजल से धो लें, जहां कलश स्थापित किया जाना है। कलश स्थापित किये जानेवाली भूमि अथवा चौकी पर रोली से ॐ स्वास्तिक 卐 या श्री बनाकर इस निम्न मंत्र से भूमि का स्पर्श करना चाहिए :
ॐ भूरसि भूमिरस्य दितिरसि विश्वधाया विश्वस्य भुवनस्य धरत्री।
पृथिवीं यच्छ पृथिवीं द्रीं ह पृथिवीं मा हि सीः।।
इसके पश्चात जमीन पर या फिर किसी मिट्टी के पात्र में साफ मिट्टी बिछाएं, फिर उस साफ मिट्टी पर जौ बिछाएं। इसके बाद फिर से उसके ऊपर साफ मिट्टी की परत बिछाएं और उस मिट्टी के ऊपर जल छिड़कना चाहिए। फिर उसके ऊपर कलश स्थापना करनी चाहिए। कलश पर भी पर रोली से ॐ 卐 या श्री बनाये और फिर कलश को शुद्ध जल से भरें। कलश के जल में गंगा जल अवश्य मिलाएं। अगर संभव हो तो कुछ और पवित्र नदियों का जल भी आप कलश के जल में मिला सकते है। इसके बाद कलश पर अपना दाहिना हाथ रखकर इस मंत्र का जाप करना चाहिए :
गंगे! च यमुने! चैव गोदावरी! सरस्वति! नर्मदे! सिंधु! कावेरि! जलेSस्मिन् सन्निधिं कुरु।।
एवं
ॐ आ जिघ्न कलशं मह्यं त्वा विशंतिवन्दवः।
पुनरूर्जा नि वर्तस्व सा नह सहत्रम् धुक्ष्वोरूधारा पयस्वती पुनर्मा विशताद्रयिः।।
ॐ वरुणस्योत्तम्भनमसि वरुणस्य सकम्भ सर्ज्जनीस्थो।
वरुणस्य ऋतसदन्यसि वरुणस्य ऋतसदनमसि वरुणस्य ऋतसदनमासीद्।।
गंगा, यमुना, कावेरी, गोदावरी, नर्मदा आदि पवित्र नदियों का ध्यान करें और साथ ही वरूण देवता का भी ध्यान करना चाहिए। इसके बाद कलश कलश को वस्त्र समर्थित करें या कलश पर कलावा बांधे। उसके बाद गन्ध, उचन्दन, दूब, सुपारी, द्रव्य (सिक्का) कलश के भीतर अर्पित करे। फिर आम के पत्ते कलश के मुख पर रखें। और फिर एक मट्टी का ढक्कन या पात्र लेकर उसमें जौ चावल भरकर कलश को कलश को उससे ढक दे और फिर एक श्रीफल नारियल ले उसे लाल कपड़े से लपेटकर कलावें से बांध देना चाहिए। फिर उस नारियल को अक्षत से भरे हुये उस पात्र के ऊपर स्थापित कर देना चाहिए।
नारियल के सम्बन्ध में शास्त्रों में कहा गया है :
अधोमुखं शत्रु विवर्धनाय, ऊर्ध्वस्य वस्त्रं बहुरोग वृध्यै।
प्राचीमुखं वित विनाशनाय, तस्तमात् शुभं संमुख्यं नारीकेलं।।
अर्थात् नारियल का मुख नीचे की तरफ रखने से शत्रु में वृद्धि होती है। नारियल का मुख ऊपर की तरफ रखने से रोग बढ़ते हैं। पूर्व की तरफ नारियल का मुख रखने से धन का विनाश होता है। इसलिए नारियल की स्थापना के समय हमेशा इस बात का ध्यान रखनी चाहिए कि उसका मुख साधक की तरफ रहे। ध्यान रहे कि नारियल का मुख उस सिरे पर होता है, जिस तरफ से वह पेड़ की टहनी से जुड़ा होता है। अब अपने दाहिने हाथ में अक्षत और पुष्प लेकर वरुण आदि देवी-देवताओ का ध्यान और आवाहन करना चाहिए –
ॐ भूर्भुवः स्वःभो वरुण! इहागच्छ, इह तिष्ठ, स्थापयामि, पूजयामि, मम पूजां गृहाण। ओम अपां पतये वरुणाय नमः बोलकर अक्षत और पुष्प कलश पर छोड़ देना चाहिए। पुनः दाहिने हाथ में अक्षत और पुष्प लेकर चारो वेद, तीर्थो, नदियों, सागरों, देवी और देवताओ के आवाहन करना चाहिए उसके बाद फिर अक्षत और पुष्प लेकर कलश की प्रतिष्ठा करें :
कलशे वरुणाद्यावाहितदेवताः सुप्रतिष्ठता वरदा भवन्तु। तथा ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नमः इस मंत्र के उच्चारण के साथ ही अक्षत और पुष्प कलश के पास छोड़ दे। फिर वरुण आदि देवताओ को ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नमःध्यानार्थे पुष्पं समर्पयामि। आदि मंत्र का उच्चारण करते हुए पुष्प समर्पित करे पुनः निम्न क्रम से वरुण आदि देवताओ को अक्षत चढ़ाये, जल चढ़ाये, स्नानीय जल, आचमनीय जल चढ़ाये, पंच्चामृत स्नान कराये, जल में रोली चन्दन मिलाकर स्नान कराये, शुद्ध जल से स्नान कराये, आचमनीय जल चढ़ाये, वस्त्र चढ़ाये, यज्ञोपवीत चढ़ाये, उपवस्त्र चढ़ाये, चन्दन लगाये, अक्षत समर्पित करे, फूल और फूलमाला चढ़ाये, द्रव्य समर्पित करे, इत्र आदि चढ़ाये, दीप दिखाए, नैवेद्य चढ़ाये, सुपारी, इलायची, लौंग सहित पान चढ़ाये, द्रव्य-दक्षिणा चढ़ाये (समर्पयामि) इसके बाद आरती करे। पुनः पुस्पाञ्जलि समर्पित करे, प्रदक्षिणा करे तथा दाहिने हाथ में पुष्प लेकर प्रार्थना करे और ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नमः, प्रार्थनापूर्वकं अहं नमस्कारान समर्पयामि।
इस मंत्र से नमस्कारपूर्वक फूल समर्पित करे। पुनः हाथ में जल लेकर अधोलिखित वाक्य का उच्चारण कर जल कलश के पास छोड़ते हुए समस्त पूजन-कर्म वरुणदेव को निवेदित करना चाहिए।
कृतेन अनेन पूजनेन कलशे वरुणाद्यावाहितदेवताः प्रीयन्तां न मम।
विष्णु पूजन : अब विष्णु जी का ध्यान करते हुए इन मंत्रों का उच्चारण करते हुए उन्हें तुलसी रोली चंदन चावल फल फूल आदि अर्पित करें
ॐ नारायणाय विद्महे। वासुदेवाय धीमहि।
तन्नो विष्णु प्रचोदयात्।।
शांता कारम भुजङ्ग शयनम पद्म नाभं सुरेशम।
विश्वाधारं गगनसद्र्श्यं मेघवर्णम शुभांगम।।
लक्ष्मी कान्तं कमल नयनम योगिभिर्ध्यान नग्म्य्म।
वन्दे विष्णुम भवभयहरं सर्व लोकेकनाथम।
शिव पूजन : निम्न मंत्रों से शिवजी का पूजन करते हुये शिवजी को बेलपत्र या आंक का पत्ता, जल रोली चंदन चावल फल फूल आदि अर्पित करें :
ॐ तत्पुरुषाय विद्महे महादेवाय धीमहि तन्नो रुद्रः प्रचोदयात्॥
कर्पूरगौरं करुणावतारं संसारसारं भुजगेन्द्रहारं।
सदा वसन्तं ह्रदयाविन्दे भंव भवानी सहितं नमामि॥
ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्। उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्।।
ॐ नम: शम्भवाय च मयोभवाय च नम: शंकराय च मयस्कराय च नम: शिवाय च शिवतराय च।
ॐकारं बिन्दुसंयुक्तं, नित्यं ध्यायन्ति योगिन:।
कामदं मोक्षदं चैव, ॐकाराय नमो नम: !! ॐकार के रूप में हमारे हृदय के केन्द्र में कौन रहता है ? वह कौन है जिस पर योगियों का निरन्तर ध्यान रहता है ? वो कौन है जो हमारि सभी इच्छाओं की पूर्ति करता है ? जो अपने भक्तों को मुक्ति देता है ?शिव, उस शिव को नमस्कार। उसी शिव का उच्चारण ॐ से है। सदानन्त मन्त्र का पहला शब्द ॐ नम : शिवाय
सूर्य देव पूजन : सूर्यनारायण को बेल पत्र नहीं चढ़ाना चाहिए। अब निम्न मंत्रों से सूर्य की पूजा करें :
*ॐ भास्कराय विद्महे दिवाकराय धीमहि। तन्नो सूर्य: प्रचोदयात्।।
ऊं घृणिं सूर्य्य: आदित्य:
पूजन के समय सूर्य आराधना के लिए सूर्य नमस्कार
ॐ सूर्य आत्मा जगतस्तस्युषश्च। आदित्यस्य नमस्कारं ये कुर्वन्ति दिने दिने।।
दीर्घमायुर्बलं वीर्यं व्याधि शोक विनाशनम्। सूर्य पादोदकं तीर्थ जठरे धारयाम्यहम्।।
फिर सूर्य आदि नवग्रह मंडल पूजन अर्चन करें
ॐ ब्रह्मा मुरारी त्रिपुरांतकारी भानु: शशि भूमि सुतो बुधश्च।
गुरुश्च शुक्र शनि राहु केतव सर्वे ग्रहा शांति करा भवंतु।।
श्री दुर्गा पूजन : दुर्गा देवी को दूर्वा नहीं चढ़ाना चाहिए। अब आदिशक्ति भगवती दुर्गा का ध्यान करते हुए इन मंत्रों का उच्चारण करते हुए उन्हें रोली चंदन चावल फल फूल आदि अर्पित करें :
ॐ कात्यायन्यै विद्महे, कन्याकुमार्ये च धीमहि, तन्नो दुर्गा प्रचोदयात्।।
ॐ गिरिजायै विद्महे शिवप्रियायै धीमहि। तन्नो दुर्गा प्रचोदयात् ।।
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे।
नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नमः।|
नमः प्रकृत्यै भद्रायै नियताः प्रणता स्मरताम।।
देहि सौभाग्यमारोग्यं देहि मे परमं सुखम्।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥
सर्वमंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके।
शरण्ये त्र्यंबके गौरी नारायणि नमोऽस्तुते।।
दुर्गे स्मृता हरसि भीतिमशेषजन्तो:, स्वस्थै: स्मृता मतिमअतीव शुभां ददासि।
दारिद्रय-दु:ख-भयहारिणी का त्वदन्या, सर्वोपकार करणाय सदाऽर्द्रचित्ता:।।
प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी।
तृतीयं चन्द्रघण्टेति कूष्माण्डेति चतुर्थकम्।।
पंचमं स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनीति च।
सप्तमं कालरात्रीति महागौरीति चाष्टमम्।।
नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गा: प्रकीर्तिता:।
उक्तान्येतानि नामानि ब्रह्मणैव महात्मना:।।
ॐ आद्यलक्ष्म्यै नमः, ॐ विद्यालक्ष्म्यै नमः, ॐ सौभाग्यलक्ष्म्यै नमः, ॐ अमृतलक्ष्म्यै नमः, ॐ लक्ष्म्यै नमः, ॐ सत्यलक्ष्म्यै नमः, ॐ भोगलक्ष्म्यै नमः, ॐ योगलक्ष्म्यै नमः।।
या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता या वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना।
या ब्रह्माच्युतशंकरप्रभृतिभिर्देवैः सदा वन्दिता सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा।।
उपरोक्त मंत्रों के अतिरिक्त श्री सप्तश्लोकी दुर्गा स्तोत्र का पाठ व अन्य देवी स्तोत्रों का पाठ अत्यंत फलदायक होता है।
नैवेद्य (भोग) अर्पण : भगवती सहित सभी देवी देवताओं को निम्न मंत्र द्वारा नैवेद्य अर्पण करे :
नैवेद्यं गृह्यतां देव भक्तिं में ह्यचलां कुरु। ईप्सितं मे वरं देहि परत्र च परां गतिम्।। शर्कराखण्डखाद्यानि दधिक्षीरघृतानि च। आहारं भक्ष्यभोज्यं च नैवेद्यं प्रतिगृह्यताम्।।
अर्थात् : आप यह नैवेद्य ग्रहण करें और अपने प्रति मेरी भक्ति को अविचल कीजिए। मनोवांछित वर दीजिए और परलोक में परम गति प्रदान कीजिए। शक्कर और खांड़ से तैयार किए गए खाद्य पदार्थ, दही, दूध, घी और भक्ष्य-भोज्य आहार नैवेद्य के रूप में प्रस्तुत है; आप यह नैवेद्य कृपापूर्वक स्वीकार करें ।
ॐ नाभ्या आसीदन्तरीक्षँ शीर्ष्णो द्यौ: समवर्तत। पद्भ्यां भूमिर्दिश: श्रोत्रातथा लोकाँ अकल्पयन्।। ॐ प्राणाय स्वाहा। ॐ अपानाय स्वाहा। ॐ समानाय स्वाहा। ॐ उदानाय स्वाहा। ॐ व्यानाय स्वाहा। नैवेद्यं समर्पयामि।।
पुष्पांजलि
ॐ यज्ञेन यज्ञमयजंत देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्। ते हं नाकं महिमान: सचंत यत्र पूर्वे साध्या: संति देवा:।। ॐ राजाधिराजाय प्रसह्ये साहिने। नमो वयं वैश्रवणाय कुर्महे स मे कामान्कामकामाय मह्यम्। कामेश्वरो वैश्रवणो ददातु। कुबेराय वैश्रवणाय। महाराजाय नम:। ॐ स्वस्ति साम्राज्यं भौज्यं स्वाराज्यं वैराज्यं पारमेष्ठ्यं राज्यं माहाराज्यमाधिपत्यमयं समंतपर्यायी स्यात्सार्वभौम: सार्वायुष आंतादापरार्धात्पृथिव्यै समुद्रपर्यंता या एकराळिति तदप्येष श्लोकोऽभिगीतो मरुत: परिवेष्टारो मरुत्तस्यावसन्गृहे आविक्षितस्य कामप्रेर्विश्वेदेवा: सभासद इति
प्रदक्षिणा (परिक्रमा) :
यानि कानि च पापानि ज्ञात-अज्ञात-कृतानि च। तानि सर्वाणि नश्यन्ति प्रदक्षिण-पदे पदे॥
क्षमाप्रार्थना
आवाहनम् न जानामि न जानामि तवार्चनाम्। यत्-पूजितम् मया देव परि-पूर्णम् तदस्तु मे।। अपराध सहस्त्राणि-क्रियंते अहर्नीशं मया। तत्सर्वम् क्षम्यताम् देवी प्रसीद परमेश्वरी॥
पूर्ण फल प्राप्ति हेतु प्रार्थना
यदि अज्ञानतावश यदि या भूलवश कोई विधि शेष रह गई हो अथवा अपूर्ण रह गई हो तो उसकी पूर्णता हेतु एवं पूजा के पूर्ण फल प्राप्ति हेतु प्रार्थना पूर्वक निम्न श्लोक मंत्र का पाठ करें :
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदम् पूर्णात् पूर्णमुदच्यते। पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।। ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः