शरद पूर्णिमा पर विशेष आलेख :
इस वर्ष 30 अक्टूबर, 2020 (शुक्रवार) को शाम 5:45 से 31 अक्टूबर, 2020 (शनिवार)) को रात्रि 08:18 तक पूर्णिमा है। अतः 30 अक्टूबर, शुक्रवार को रासोत्सव मनाया जाएगा, जिसके अंतर्गत चंद्रोदय के पश्चात लक्ष्मीजी और श्रीराधा कृष्ण युगल के विग्रह अथवा चित्रपट को शरद पूर्णिमा की चन्द्रकिरणों में रखकर उनका पूजन अर्चन करें और कम से कम एक प्रहर (3 घंटे) तक चंद्र किरणों में रखी खीर का ठाकुर जी को भोग अर्पित कर शरद पूर्णिमा पर्व उत्सव मनायें। 31 अक्टूबर, शनिवार को शरद पूर्णिमा का कोजागर / कौमुदी व्रत करें।
हिन्दू पंचांग के अनुसार हरेक हिन्दू मास के शुक्ल पक्ष की 15वीं और अंतिम तिथि को, जिस दिन आकाश में पूरा चंद्रमा होता है, पूर्णिमा कहते हैं। इस दिन का भारतीय जनजीवन में अत्यधिक महत्व हैं। हर माह की पूर्णिमा को कोई न कोई पर्व अथवा व्रत अवश्य मनाया जाता हैं। शारदीय नवरात्रि के समापन के पांचवे दिन आने वाली आश्विन मास की पूर्णिमा को ही ‘शरद पूर्णिमा’ कहा जाता है और शरद पूर्णिमा का पर्व मनाया जाता है। शरद पूर्णिमा को रास पूर्णिमा या कोजागरी पूर्णिमा भी कहते हैं। शरद पूर्णिमा के दिन से गुलाबी सर्दी की अनुभूति होनी शुरू हो जाती है। इस दिन किए जाने वाले व्रत को कोजागर व्रत या कौमुदी व्रत भी कहते हैं।
श्रीमद् भागवत महा पुराण के दशम स्कंध के उनतीसवें अध्याय से तैंतीसवें अध्याय तक के पाँच अध्यायों “रास पंचाध्यायी” में वर्णन आता है कि शरद पूर्णिमा के दिन ही श्रीकृष्ण ने चांदनी रात में यमुना तट पर महारास रचाया था और आत्मा रूपी गोपियों को ईश्वरीय अमृत का पान कराया था। भागवत पुराण के इन पाँच अध्यायों की इस पुराण का प्राण माना जाता है क्योंकि इस अध्यायों में श्रीकृष्ण की दिव्य लीला के माध्यम से प्रेम और समर्पण की प्रतिष्ठा की गई है। इस महारास लीला का उपास्य काम विजयी माना जाता है। अत: जो कोई भक्त इस लीला प्रसंग को पढ़ता या दृश्य रूप में देखता या मानसिक रूप से चिंतन करता है, वह कामजय की सिद्धि प्राप्त करता है। “रास पंचाध्यायी” के पाँच अध्यायों में वर्णित महारास लीला का संक्षेप में सार इस प्रकार है – शारदीय पूर्णिमा की रात्रि के समय भगवान श्रीकृष्ण के मन में गोपियों के साथ रसमयी रासक्रीड़ा करने का संकल्प हुआ। उन्होंने अपनी मनोहारी कामबीज वंशी की ध्वनि बजाई। वंशी की मोहक ध्वनि सुनते ही गोपियाँ अपना समस्त क्रियाव्यापार त्याग कर रास प्रदेश में कृष्ण के पास पहुँच गई। श्री कृष्ण ने उन्हें पहले तो समझा-बुझाकर अपने घर वापस जाने को कहा, किंतु गोपियाँ अपने निश्चय पर अढ़िग रहीं और रास क्रीड़ा के लिए कृष्ण से आग्रह करती रहीं। जब गोपियाँ अपने पर लौटने को उद्यत न हुई तो, श्रीकृष्ण ने आनंदपुलकित मन से मडंलाकार स्थिति होकर उनके साथ रासलीला प्रारंभ की। जितनी गोपियां थी उतने ही कृष्ण हो गए। इस रासलीला को वैष्णव भक्त दिव्य क्रीड़ा मानते हैं और इसका आध्यात्मिक अर्थ प्रस्तुत करते हैं। श्रीकृष्ण चिदानंदघन दिव्यशरीर हैं, गोपियाँ दिव्य जगत् की भगवान की अतंरंग शक्तियाँ हैं। उनकी लीला भावभूमि की है, स्थूल शरीर और मन से उसका कोई संबंध नहीं। रास पंचाध्यायी और महारास लीला पर टीका लिखने वाले श्री वल्लभाचार्य, श्री श्रीधर स्वामी, श्री जीव गोस्वामी आदि ने इस आध्यात्मिक तत्व की व्याख्या बड़े विस्तार से की है। महारास लीला का महत्व प्रेमलक्षणा भक्ति के संदर्भ में बहुत माना जाता है। वैष्णव भक्ति के समर्पण भाव को स्थापित करने वाला यह प्रधान प्रसंग है।
शरद पूर्णिमा पूजा व व्रत विधान :
माना जाता है कि शरद पूर्णिमा का व्रत करने से व्यक्ति की सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं। अतः इस दिन मनुष्य विधिपूर्वक स्नान करके उपवास रखे और जितेन्द्रिय भाव से रहे। ताँबे अथवा मिट्टी के कलश पर लक्ष्मीजी की प्रतिमा एवं साथ में श्री राधा-कृष्ण की प्रतिमाओं को स्थापित करके भिन्न-भिन्न उपचारों से उनकी पूजा करें, तदनंतर सायंकाल में चन्द्रोदय होने पर घी के108 दीपक जलाए। इसके बाद चांदी के पात्र में गाय के दूध, घी और गंगाजल मिश्रित खीर तैयार करे और चांदी के पात्र में डालकर उसे चन्द्रमा की चाँदनी में रखें। जब एक प्रहर (3 घंटे) बीत जाएँ, तब लक्ष्मीजी एवं श्रीराधा कृष्ण को खीर भोग प्रसाद अर्पित करें और उनके साथ ही भजन स्तुति आदि गाकर तथा पूजन अर्चन करते हुए करते हुए रात्रि जागरण करें। तदनंतर प्रातः काल में रात भर चंद्रमा की रोशनी में रखी हुई भगवान का भोग लगी प्रसादी खीर भक्तिपूर्वक ग्रहण करें। तत्पश्चात भक्तिपूर्वक दीन दुःखियों ग़रीबों को भोजन कराएँ और धन आदि देकर भी उनके सहायता करें। इस प्रकार शरद पूर्णिमा को किया जाने वाला यह कोजागर व्रत लक्ष्मीजी को संतुष्ट करने वाला और श्री राधा कृष्ण की अविचल भक्ति और अनंत पुण्य फल प्रदान करने वाला है। इस रात्रि की मध्यरात्रि में देवी महालक्ष्मी संसार में विचरण करती हैं और जागकर पूजा में लगे हुए उस मनुष्य को इससे प्रसन्न हुईं माँ लक्ष्मी अपने कर-कमलों द्वारा वर अभय और इस लोक में तो समृद्धि देती ही हैं और परलोक में भी सद्गति प्रदान करती हैं।
शरद पूर्णिमा का पौराणिक आध्यात्मिक प्राकृतिक आयुर्वेदिक और वैज्ञानिक महत्व :
हिंदू पंचांग के अनुसार अश्विन माह की शुरुआत से कार्तिक महीने के अंत तक शरद ऋतु रहती है। शरद ऋतु में 2 पूर्णिमा पड़ती है, आश्विन माह की और कार्तिक माह की। इनमें अश्विन माह की पूर्णिमा महत्वपूर्ण मानी गई हैं। अतः शरद ऋतु की इस प्रधान पूर्णिमा को शरद पूर्णिमा कहा जाता है। पुराणों के अनुसार कुछ रातों का बहुत महत्व है जैसे नवरात्रि, शिवरात्रि, होली, दीपावली और इनके अलावा शरद पूर्णिमा भी शामिल है। श्रीमद्भागवत महापुराण के अनुसार चन्द्रमा को औषधि का देवता माना जाता है। इस दिन चांद अपनी 16 कलाओं से पूरा होकर अमृत की वर्षा करता है। पूरे वर्ष भर में केवल शरद पूर्णिमा को चन्द्रमा सोलह कलाओं से परिपूर्ण होता है। मान्यता है इस दिन चंद्रमा की किरणों से अमृत बरसता है। अतः शरद पूर्णिमा की रात्रि का विशेष महत्त्व है । इस रात को चन्द्रमा अपनी पूर्ण कलाओं के साथ पृथ्वी पर शीतलता, पोषक शक्ति एवं शांतिरूपी अमृतवर्षा करता है। दशहरे और पांपाकुशा एकादशी से शरद पूर्णिमा के पश्चात करवा चौथ अथवा पंचमी तक चन्द्रमा की चाँदनी में विशेष हितकारी रस, हितकारी किरणें होती हैं। अतएव इन दिनों चन्द्रमा की चाँदनी का लाभ उठाना चाहिए, जिससे वर्षभर आप स्वस्थ और प्रसन्न रहें। शरद पूर्णिमा की रात्रि में भ्रमण और चंद्रकिरणों का शरीर पर पड़ना बेहद ही शुभ माना जाता है। तभी इस दिन उत्तर भारत में खीर बनाकर रात भर चाँदनी की रोशनी में रखने की परंपरा है।
अश्विनी कुमार देवताओं के वैद्य हैं। जो भी इन्द्रियाँ शिथिल हो गयी हों, उनको पुष्ट करने के लिए चन्द्रमा की चाँदनी में खीर रखकर और भगवान को भोग लगाकर अश्विनी कुमारों से भी प्रार्थना करनी चाहिए कि ‘हमारी इन्द्रियों का बल-ओज बढ़ायें ।’ तत्पश्चात वह खीर प्रसाद रूप में ग्रहण करें।
हर महीने की पूर्णिमा को चन्द्रमा के विशेष प्रभाव और गुरुत्वाकर्षण की शक्ति से समुद्र में ज्वार-भाटा आता है। जब चन्द्रमा इतने बड़े समुद्र में उथल-पुथल कर विशेष कम्पायमान कर देता है, तो हमारे शरीर में जो जलीय अंश है, सप्तधातुएँ हैं, सप्त रंग हैं, उन पर भी चन्द्रमा का प्रभाव पड़ता है। अतः हरेक महीने की एकादशी से पूर्णिमा तक के दिनों में काम-विकार त्यागकर यदि उपवास, व्रत तथा सत्संग किया जाये तो तन तंदुरुस्त, मन प्रसन्न और बुद्धि में बुद्धिदाता का प्रकाश आता है।
चांदनी रात में 10 से मध्यरात्रि 12 बजे के बीच कम या महीन वस्त्रों में घूमने वाले व्यक्ति को ऊर्जा प्राप्त होती है। सोमचक्र, नक्षत्रीय चक्र और आश्विन के त्रिकोण के कारण शरद ऋतु से ऊर्जा का संग्रह होता है और बसंत में निग्रह होता है।
इन दिनों नेत्रज्योति बढ़ाने के लिए प्रतिदिन रात्रि में 15 से 20 मिनट तक चन्द्रमा के ऊपर त्राटक करें। इस रात सुई में धागा पिरोने का अभ्यास करने से भी नेत्रज्योति बढ़ती है।
शरद पूर्णिमा दमे की बीमारी वालों के लिए वरदान का दिन है। रातभर जागकर प्रत्यक्ष तौर पर चंद्रकिरण का शरीर पर पडना विशेष प्रभावकारी और लाभकारी होता है। चन्द्रमा की चाँदनी में रखी हुई खीर में औषधि मिलाकर खाना भी फायदेमंद होता है।
शरद पूर्णिमा के चन्द्रमा की चाँदनी गर्भवती महिला की नाभि पर पड़े तो गर्भ पुष्ट होता है। शरद पूर्णिमा की चाँदनी का अपना महत्त्व है लेकिन बारहों महीने चन्द्रमा की चाँदनी गर्भ को और औषधियों को पुष्ट करती है।
माना जाता है कि लंकाधिपति रावण शरद पूर्णिमा की रात किरणों को दर्पण के माध्यम से अपनी नाभि पर ग्रहण करता था। इस प्रक्रिया से उसे पुनर्योवन शक्ति प्राप्त होती थी।
शरद पूर्णिमा पर खीर के भोग प्रसाद का महत्व :
खीर को रसराज कहते हैं। शरद पूर्णिमा पर अश्विनी नक्षत्र में चंद्रमा अपनी पूर्ण 16 कलाओं से युक्त होकर रातभर अपनी किरणों से अमृत की वर्षा करता है। खास बात यह है कि चंद्रमा की यह स्थिति साल में सिर्फ एक बार ही बनती है। अतः इस रात श्रीराधा कृष्ण, लक्ष्मीजी और चंद्रमा के साथ अश्विनी कुमारों को भी खीर का भोग लगाने से लाभ होता है। अतः इस दिन रात्रि भर सीधे चंद्रकिरण में पतला बारीक महीन पारदर्शी कपड़ा बांधकर खीर को खुले में रखने से ओस के कण के रूप में अमृत बूंदें खीर के पात्र में भी गिरथीं हैं, जिसके फलस्वरूप दूध, चावल, मिश्री, चाँदी, चन्द्रमा की चाँदनी – इन पंचश्वेतों से युक्त होकर, उस खीर में औषधीय गुण आ जाते हैं और वह अमृतमय प्रसाद बन जाती है, जिसको प्रसाद रूप में ग्रहण करने से प्राणी आरोग्यता एवं कांति की वृद्धि होती है। इस खीर का प्रसाद ग्रहण करने से पहले अश्विनी कुमारों से प्रार्थना करनी चाहिए कि हमारी जो इन्द्रियां शिथिल हो गई हों, उनको पुष्ट करें। ऐसी प्रार्थना करने के बाद फिर उस खीर का प्रसाद ग्रहण करना चाहिए।
रावण ने लंका में सीताजी को अशोक वाटिका में बंधक बनाकर रखा था। वहां उनका तन-मन स्वस्थ रहे इसीलिए इन्द्रदेव उन्हें खीर भेजते थे, ऐसी मान्यता है।
रातभर चंद्रमा की रोशनी में खीर रखने का वैज्ञानिक महत्व :
मान्यताओं से अलग वैज्ञानिकों ने भी इस पूर्णिमा को खास बताया है, जिसके पीछे कई सैद्धांतिक और वैज्ञानिक तथ्य छिपे हुए हैं। इस पूर्णिमा पर चावल और दूध से बनी खीर को चांदनी रात में रखकर प्रात: सेवन करने से रोग खत्म हो जाते हैं और रोगप्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है। खीर दूध और चावल से बनकर तैयार होती है। दरअसल दूध में लैक्टिक नामक अम्ल पाया जाता है, जो चंद्रमा की किरणों से अधिक मात्रा में शक्ति का शोषण करता है। इसके साथ ही चावल में स्टार्च पाया जाता है, जिसकी वजह से ये प्रक्रिया और भी आसान हो जाती है। वैज्ञानिक मान्यताओं के अनुसार भी इस खीर का सेवन करना काफी फायदेमंद होता है। इसी कारण ऋषि-मुनियों ने शरद पूर्णिमा की रात्रि में खीर खुले आसमान में रखने का विधान किया है और इस खीर का सेवन सेहत के लिए महत्वपूर्ण बताया है। इससे पुनर्योवन शक्ति और रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है। यह परंपरा विज्ञान पर आधारित है।
एक वैज्ञानिक शोध के अनुसार इस दिन दूध से बने उत्पाद का चांदी के पात्र में सेवन करना चाहिए। चांदी में प्रतिरोधक क्षमता अधिक हती है। इससे विषाणु दूर रहते हैं। प्रत्येक व्यक्ति को कम से कम 30 मिनट तक शरद पूर्णिमा को शीतल चंद्र किरणों का स्नान करना चाहिए। इस दिन बनने वाला वातावरण दमा के रोगियों के लिए विशेषकर लाभकारी माना गया है।
शरद पूर्णिमा की रात दमा रोगियों के लिए वरदान बनकर आती है। इस रात्रि में दिव्य औषधियों को खीर में मिलाकर उसे चांदनी रात में रखकर प्रात: 4 बजे सेवन किया जाता है। रोगी को रात्रि जागरण करना पड़ता है और औषधि सेवन के पश्चात 2-3 किमी पैदल चलना लाभदायक रहता है।
शरद पूर्णिमा के दिन चांदनी रात में रखी हुई खीर मलेरिया से बचाव में भी बहुत सहायक होती है। सभी जानते हैं बैक्टेरिया बिना उपयुक्त वातावरण के नहीं पनप सकते। जैसे दूध में दही डालने मात्र से दही नहीं बनाता, दूध हल्का गरम होना चाहिए। उसे ढंककर गरम वातावरण में रखना होता है। बार बार हिलाने से भी दही नहीं जमता। ऐसे ही मलेरिया के बैक्टेरिया को जब पित्त का वातावरण मिलता है, तभी वह 4 दिन में पूरे शरीर में फैलता है, नहीं तो थोड़े समय में समाप्त हो जाता है। कई प्रयासो के बाद भी मच्छर और रोगवाहक सूक्ष्म कीट हमें नहीं काटेंगे यह हमारे हाथ में नहीं। लेकिन पित्त को नियंत्रित रखना तो हमारे हाथ में है। अब हमारी परंपराओं का चमत्कार देखिए। क्यों खीर खाना इस मौसम में अनिवार्य हो जाता है। वास्तव में खीर खाने से पित्त का शमन होता है। वर्षा ऋतु के बाद जब शरद ऋतु आती है तो आसमान में बादल व धूल के न होने से कड़क धूप पड़ती है। जिससे शरीर में पित्त कुपित होता है। इस समय गड्ढों आदि मे जमा पानी के कारण बहुत बड़ी मात्रा मे मच्छर पैदा होते हैं, इससे मलेरिया होने का खतरा पैदा हो जाता है। शरद में ही पितृ पक्ष (श्राद्ध) आता है। पितरों का मुख्य भोजन है खीर। इसलिये इस दौरान 5-7 बार प्राय: खीर खाना हो जाता है। इसके बाद शरद पूर्णिमा को रातभर चांदनी के नीचे चांदी के पात्र में रखी खीर सुबह खाई जाती है। यह खीर हमारे शरीर में पित्त के प्रकोप को कम करती है।
खीर का बर्तन कैसा हो ? :
सबसे पहले खीर बनाने या चांदनी रात में खीर रखने के पात्र का ध्यान रखें। शरद पूर्णिमा के दिन अगर संभव हो सके तो प्रसाद की खीर को चांदी के बर्तन में ही बनाए और में रखें तो सर्वोत्तम रहता है। यदि चांदी का बर्तन घर में मौजूद न हो तो बनाते समय और रखते दोनों समय खीर के बर्तन में एक चांदी का चम्मच जो कोई भी पात्र या आभूषण आदि उपलब्ध हो उसे अच्छी तरह साफ करके उसे उस खीर के बर्तन में डाल दें। इसके अलावा आप खीर बनाने या रखने के लिए मिट्टी, कांसा या पीतल के बर्तनों का भी उपयोग कर सकते हैं। खीर को चांदनी रात में रखने के लिए कभी भी स्टील, एल्यूमिनियम, प्लास्टिक, चीनी मिट्टी के बर्तनों का इस्तेमाल न करें। ऐसा करने पर सेहत प्रभावित हो सकती है।
खीर बनाने का तरीका :
इस दिन बनाए जाने वाली खीर मात्र एक व्यंजन नहीं होती बल्कि यह एक दिव्य औषधि मानी जाती है। इसीलिए इस खीर को किसी भी दूध से नहीं बल्कि गाय के दूध और गंगाजल बनाना सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। हिंदू धर्म में चावल को हविष्य अन्न यानी देवताओं का भोजन माना गया है। कहा जाता है कि श्रीराधा कृष्णऔर लक्ष्मीजी भी खीर से विशेष प्रसन्न होती हैं। संभव हो तो शरद पूर्णिमा की खीर को चंद्रमा की ही रोशनी में बनाना चाहिए। ध्यान रखें कि इस ऋतु में बनाई खीर में केसर और मेंवों (बादाम, काजू, पिस्ता, चारोली आदि) का प्रयोग न करें। दरअसल, मेवें और केसर गर्म प्रवृत्ति के होने से पित्त बढ़ा सकते हैं और ये रात को पचने में भी भारी होते हैं। खीर में सिर्फ इलायची का ही प्रयोग करना चाहिए।