गोपाष्टमी पर्व (22 नवंबर 2020, रविवार) पर विशेष आलेख
कार्तिक मास की शुुुकल अष्टमी को मनाया जाने वाला : “गोपाष्टमी पर्व” बृज संस्कृति का गो-पूजा का शास्त्रीय पर्व है, जो गौ संरक्षण और गौ संवर्धन को समर्पित है। इस दिन भगवान श्रीकृष्ण पहली बार गाय चराने के लिए गए थे यानि कि पहली बार कन्हैया ने ग्वाले का रूप धारण कर प्रथम बार “गोप कर्म” प्रारंभ किया था इसीलिए कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि को गोपाष्टमी कहा जाता है।
पुराणों के अनुसार बालकृष्ण ने माँ यशोदा से गायों की सेवा करनी की इच्छा व्यक्त करते हुए कहां कि मैय्या अब हम बड़े हो गए हैं अब हमें गाय चराने के लिए जाना है। मैय्या ने कहा, ठीक है बाबा से पूछ लेना” मैय्या के इतना कहते ही झट से भगवान् नन्द बाबा से पूछने पहुंच गए।
बाबा ने कहा, लाला अभी तुम बहुत छोटे हो। जब भगवान नहीं माने तब बाबा बोले- ठीक है। उनके कहने पर शांडिल्य ऋषि द्वारा अच्छा समय देखकर उन्हें भी गाय चराने ले जाने की आज्ञा दे दी। शांडिल्य ऋषि द्वारा जो समय निकाला गया, वह गोपाष्टमी का शुभ दिन था। भगवान जिस समय कोई कार्य करें वही शुभ-मुहूर्त बन जाता है।
उस दिन भगवान ने गौ चारण आरम्भ किया। माता यशोदा ने सुबह जल्दी उठकर अपने लल्ला का अति सुंदर श्रृंगार किया और मधुर गीत गाते हुए विभिन्न प्रकार के वाद्य भी बजाएं। पंडितों ने वेद मंत्र से बाल गोपाल का पूजन किया। गोप गोपियों और समस्त ब्रजवासियों ने मंगल गीत गाते हुए उन्हें बधाईयां दी।
आगे-आगे गाय और उनके पीछे बांसुरी बजाते भगवान उनके पीछे बलराम और श्रीकृष्ण के यश का गान करते हुए ग्वालबाल। इस प्रकार से विहार करते हुए भगवान् ने वन में प्रवेश किया तब से भगवान् की गौ-चारण लीला का आरम्भ हुआ।
प्रथम गोचारन को दिन आज।
प्रातकाल उठि जसोदा मैया कीनी है सब साज।।
विविध भांति बाजे बाजत हैं रह्यो घोष सब गाज।
गावत गीत मनोहर बानी तजि गुरुजन की लाज।।
लिरिका सकल संग संकर्षण बेनु बजाय रसाल।
आगे धेनु चले गोविंद प्रभु नाथ भयों गोपाल।।
गाय चरावन को दिन आयो।
फूली फिरत जसोदा अंग अंग लालन उबटि नहवायो।।
भूषण बसन विविध पहराये रोरी तिलक बनायौ।
विप्र बुलाय बेद ध्वनि कीनी मोतिन चौक पुरायो।
देत असीस सकल गोपीजन आनंद मंगल गायों मटकत चलत लाडिलौ बन कौ ‘कुंभनदास’ जस गायो।।
बहु विधि बाजे बाजत गावत रही नगर धुनि छाइ कैं।
गांव गोइरे आये सब तब देत असीस सिहाई कैं।।
बगर बगर मंगल समूह लखि बाढ़यौ सहज सुभाइ कैं।
न्यौछाविर नर नारि करत हैं नन्द सुवन पै आइ कैं।
अहो सुबल मधुमंगल अर्जुन भोज सुनौ चित लाइ कैं।
कालीदह बन ताल गऊनि को जिन लै जाउ बढ़ाइ कैं।।
आगे टोल चले गऊवनि के दीनी बन बगराइ कैं।
मनु बसन्त फूल्यौ बहु रंगनि कहां सुनाऊँ गाइ कैं।।
रूप जलद कौ धुरवा मानौ बरसत सुख समुदाइ कैं।
आये बट संकेत देखि छवि मोहन रहे ललचाइ कैं।
तौरित फूल गोप कन्या तहां निरखि गये बौराई कैं।
वृंदावन हित रूप नैन प्यासेन दियौ अघवाइ कैं।।
जब भगवान् गौएं चराते हुए वन जाते तब उनके चरणों से वन भूमि अत्यन्त पावन हो जाती, वह वन गौओं के लिए हरी-भरी घास से युक्त एवं रंग-बिरंगे पुष्पों की खान बन जाता है। गौचरण लीला के दौरान ही श्रीकृष्ण की भेंट श्रीराधा रानी एवं अन्य गोपिकाओं से होती है। गोचरण लीला के कारण ही कन्हैया गो पूजक और गोपाल कहलाए। इनको गायों के साथ और गोष्ठ में रहना अत्यंत भाता, उनके आगे गाय पीछे गाय इधर गाय उधर और सर्वत्र गाय रहती। उनको गायों के संग रहना ही भाता और गायों के संग रहने में ही उनको असीम सुख की प्राप्ति होती। वे गायों के चरणों की धूल को अपने अंग में लगाते थे गायों से भरे ब्रजमंङल में उनको वैकुंठ की भी विस्मृति हो जाती। गौ सेवा की शिक्षा देने के लिए ही उन्होंने ग्वाले का स्वरूप धारण किया और गाय एवं गोपो के हित के लिए इनके संरक्षण और संवर्धन के लिए ही उन्होंने गिरिराज गोवर्धन पर्वत को अपनी उल्टे हाथ की छोटी उंगली पर धारण किया।
आगें गाय पाछें गाय इत गाय उत गाय,
गोविंद कौं गायन में बसिवौ ही भावै।।
गायन के संग धावैं गायन में सचु पावै,
गायन की खुर रेनु अंग लपटावै।।
गायन सौ ब्रज छायौं बैकुंठ हू विसरायौ,
गायन के हेत कर गिरि लै उठायौ।
छीत स्वामी गिरधारी विट्ठलेस बपु धारी,
ग्वारिया कौ भेष धरैं गायन में आयौ।
चौरासी कोस के ब्रजमंडल के अंतर्गत आने वाले नंदगांव में आज भी 5000 वर्ष पूर्व भगवान श्री कृष्ण द्वारा की गई गोचारण लीला का अनुकरण उसी भक्ति भाव और पारंपरिक रूप से होता है।
गोपाष्टमी के दिन सुबह सवेरे से ही भगवान कृष्ण बलराम के स्वरूपों को कन्धों पर बैठाकर पूरे गांव नगर में भ्रमण कराया जाता है। हरेक घर में उनकी आरती और पूजन करके ग्वालबालों व सखाओं सहित उनका घर में बने नाना प्रकार के व्यंजनों से भोग लगाकर अपने को धन्य मानते हैं।
तत्पश्चात नंदीश्वर पर्वत पर विराजमान श्री नंदराय जी के निज महल नंदभवन मंदिर परिसर में समाज गायन पद गायन और अनेक प्रसंगों का लीला मंचन होता है। पूजन आरती और इत्र द्वारा भगवान कृष्ण बलराम के स्वरूपों की पैर मालिश के बाद संपूर्ण गांव नगर में गाजे-बाजे सहित कंधे पर बैठाकर पैदल शोभा यात्रा निकाली जाती है जो नंद गांव में स्थित अनेक पौराणिक मंदिरों एव लीला स्थलीय से होकर गुजरती है, हर स्थान पर पद गायन और प्रसाद वितरण होता है। शाम के समय गांव/नगर की सभी महिलाएं यशोदा मैया के भाव में श्री कृष्ण कुंड पर उनको वापस लाने पहुंचतीं हैं और वहां उनका पूजन अर्चन कर आरती उतारती हैं। आखिर में शोभायात्रा दोबारा मंदिर पहुंचती है, जहां समाज गायन और पद गायन होता है और श्री कृष्ण बलराम स्वरूपों की आरती उतारकर और भोग लगाकर प्रसाद वितरण किया जाता है। इस समस्त कार्यक्रम में और शोभायात्रा में सभी नगरवासी, समस्त भारतवर्ष से अनेक वैष्णवजन और कई विदेशी श्रद्धालु भक्त भी बड़े भक्ति भाव से सम्मिलित होकर अपने आप को धन्य मानते हैं। ऐसा भावपूर्ण आयोजन संभवत न केवल संपूर्ण भारत वर्ष में बल्कि संभवत ब्रज क्षेत्र में भी नहीं होता। मान्यताओं के अनुसार इस कार्यक्रम और शोभायात्रा में सम्मिलित होने का फल अश्वमेध यज्ञ और वाजपेय यज्ञ के फल से भी अधिक है।
मान्यताओं के अनुसार, जो लोग गोपाष्टमी के दिन गाय की विधिवत पूजा करते हैं उन्हें सुखमय जीवन का आशीर्वद प्राप्त होता है। साथ ही अच्छे भाग्य का आशीर्वाद भी मिलता है। गोपाष्टमी के दिन पूजा व गौ-पूजन करने वाले व्यक्ति की समस्त मनोकामना पूरी होती हैं। बृजवासी और संपूर्ण विश्व के वैष्णव लोग इस पर्व को काफी धूमधाम से मनाते हैं।
हमारी सनातन संस्कृति में गाय को सर्वदेवमयी माना जाता है। गाय में सारे देवी-देवता बसते हैं और गाय की पूजा से ग्रह-पीड़ा भी समाप्त होती है। गाय को आध्यात्मिक और दिव्य गुणों का स्वामी भी कहा गया है। गाय हमारी संस्कृति की प्राण है। यह गंगा, गायत्री, गीता, गोवर्धन और गोविन्द की तरह पूज्य है। शास्त्रों में कहा गया है-
‘मातर: सर्वभूतानां गाव:’
यानी गाय समस्त प्राणियों की माता है।
इसी कारण आर्य-संस्कृति में पनपे शैव, शाक्त, वैष्णव, गाणपत्य, जैन, बौद्ध, सिख आदि सभी धर्म-संप्रदायों में उपासना एवं कर्मकांड की पद्धतियों में भिन्नता होने पर भी वे सब गौ के प्रति आदर भाव रखते हैं और गाय को ‘गोमाता’ कहकर संबोधित करते हैं। दिव्य गुणों की स्वामिनी गौ पृथ्वी पर साक्षात देवी के समान हैं । धर्मग्रंथों में कहा गया है- ‘सर्वे देवा: स्थिता देहे सर्वदेवमयी हि गौ:।’ गाय की देह में समस्त देवी-देवताओं का वास होने से यह सर्वदेवमयी है। मान्यता है कि जो मनुष्य प्रात: स्नान करके गौ स्पर्श करता है, वह पापों से मुक्त हो जाता है। संसार के सबसे प्राचीन ग्रंथ वेद हैं और वेदों में भी गाय की महत्ता और उसके अंग-प्रत्यंग में दिव्य शाक्तियां होने का वर्णन मिलता है।
गाय के गोबर में लक्ष्मी, गोमूत्र में भवानी व गंगा आदि पवित्र नदियां, चरणों के अग्रभाग में आकाशचारी देवता, रंभाने की आवाज़ में प्रजापति और थनों में समुद्र प्रतिष्ठित हैं। मान्यता है कि गौ के पैरों में लगी हुई मिट्टी का तिलक करने से तीर्थ-स्नान का पुण्य मिलता है। यानी सनातन धर्म में गौ को दूध देने वाला एक निरा पशु न मानकर सदा से ही उसे देवताओं की प्रतिनिधि माना गया है।
Comments
कृष्ण जिनका नाम है।।
गोकुल जिनका धाम है।।
ऐसे श्री भगवान को।
बारम्बार प्रणाम है।।।
Ati sunder or informative lekh
Congratulations