ब्रज की द्वापरयुगीन अनोखी परंपरा : “लड्डू होली” एवं “लट्ठमार होली”

ब्रज की होली अपनी अनूठी और अनोखी परंपराओं के कारण सारे विश्व में प्रसिद्ध है। होली का अनुपम व अलौकिक रंग और रस ब्रज के कण-कण में छाया रहता है। ब्रज के इस “होरी लीला” उत्सव के अधिदेवता शाश्वत दंपत्ति भगवान श्रीराधाकृष्ण हैं। होली लीला भगवान श्रीराधाकृष्ण युगल‌ सरकार की अति प्रिय लीला है, अतः आत्मिक आनंद की असीम अनुभूति के आध्यात्मिक पर्व “होली” का यह पावन उत्सव श्रीराधाकृष्ण के अमर-प्रेम से जुड़ा हुआ है, जो द्वैत से अद्वैत के मिलन का प्रतीक भी है।‌ श्रीराधाकृष्ण का प्रेम “पाने या खोने” की बाध्यताओं से कहीं ऊपर है। श्रीराधाकृष्ण के इस प्रेम में‌ समर्पण और अधिकार दोनों का वह सागर है जहां “मुनि मति ठाड़ि तीर अबला सी” रह जाती है, अर्थात् जिसकी थाह कोई नहीं पा सकता। इसी ओर इंगित करते हुए गोपियां‌ उद्धव से कहती है कि
”उधौ तुम हुए बौरे, पाती लेके आये दौड़े…!
हम योग कहाँ राखें? यहां रोम रोम श्याम है…!!”

ब्रज में की गई श्रीलाडली-लाल जू की अनुपम रसमाधुर्यमयी दिव्य लीलाओं का आनंद अवर्णनीय है। यूं तो चौरासी कोस के समस्त ब्रज मंडल क्षेत्र में रंगों का यह त्यौहार “होली” सौहार्द और आनन्द के साथ वसंत पंचमी से लेकर चैत्र कृष्ण एकादशी तक लगभग पूरे 51 दिनों तक मनाया जाता है। किन्तु फाल्गुन शुक्ल अष्टमी से लेकर फाल्गुन पूर्णिमा तक के 8 दिनों में तो समस्त ब्रजमंडल क्षेत्र में सब काम छोड़ कर केवल होली और सिर्फ होली के रंग रस और रूप की विशेष धूम रहती है। इन 8 दिनों को होलाष्टक भी कहा जाता है।‌

बरसाने में होली

मान्यता है कि कृष्णकालीन द्वापरयुग में “फाल्गुन शुक्ल अष्टमी” को प्रातःकालीन बेला में बरसाने से पुरोहित, गोपियां और राधाजी की सखियां‌ होली खेलने का आमंत्रण लेकर नंदगांव गई थीं। वहां नंदलाला, श्रीकृष्ण, भ्राता बलराम, नंदबाबा और मैया यशोदा आदि ने उनका स्वागत करते हुए एक भव्य उत्सव‌ एवं भोज का आयोजन किया और उपहार आदि देकर उनकी विदाई की। सायंकालीन बेला में होली के इस फाग निमंत्रण (न्योते) को नंदबाबा ने स्वीकार करते हुए अपने पुरोहितजी के माध्यम से बरसाना में बृषभानजी को इसकी सूचना देने भेजा था। वहां पर बाबा बृषभान और कीर्ति मैया ने नन्दगांव से आये पुरोहित‌जी का लड्डू से मुंह मीठा करवाया और नंदमहल ले जाने के लिए भी शगुन के रूप में लड्डू दिए, उसी समय बरसाने की गोपियों व किशोरीजी की सखियों ने पांडे को अबीर गुलाल लगा दिया किन्तु पांडे के पास गुलाल नहीं था तो वह खाने के लिए दिए गये लड्डुओं को ही गोपियों के ऊपर फेंकने लगा. तभी से बरसाने में हर साल “लड्डू होली” खेलने की परंपरा प्रारंभ हो गई।* 

अगले दिन “नवमी” को कान्हा अपने सखाओं को साथ लेकर राधा और अन्य गोपियों के साथ होली खेलने बरसाना पहुंच गये और अबीर गुलाल से होली खेलने के साथ-साथ वें राधा व उनकी सखियों के साथ हंसी ठिठोली उपहास करते हुये उन्हें परेशान करने लगें, इस पर होली के रंग से बचने और कृष्ण और उसके सिखाओ को सबक सिखाने के लिए राधारानी अपनी सखियों के साथ मिलकर उन पर लाठियां बरसाने लगी। उनके वार से बचने के लिए कृष्ण और उनके सखा अपनी पगड़ियों और कमर के फेंटा के वस्त्रों को ढाल बनाकर बचने प्रयास करने लगें :
“आज हरि खेलत फाग घनी, इत गोरी रोरी भरि झोरी, उत गोकुल कौ धनी…।”

“दशमी” के दिन बरसाना के गोप (होरियारे) नंदगांव की गोपियों (हुरियारिनों‌) के साथ होली खेलने‌ नंदगांव गये।

कालांतर में उनका ये प्रेमपूर्वक होली खेलने का रंग रूप परंपरा बन गया और तब से आज तक इस परंपरा का निर्बाध रूप से पालन हो रहा है। आज भी हर साल बड़े भव्य स्तर पर बरसाना और नंदगांव‌ में फाग निमंत्रण उत्सव, लड्डू होली और लट्ठमार होली का आयोजन अपने पारंपरिक रंग रूप में होता है।‌‌ आजकल भी यहां की होली केवल नंदगांव और बरसाने के लोगों के बीच ही खेली जाती है और मंदिर सेवायत गोसाई समाज के पुरुष और महिलाएं ही इसमें भाग लेते हैं।

बरसाना नंदगांव दोनों स्थानों पर लट्ठमार होली के उपरांत फागुन शुक्ल “आमलकी एकादशी” को ब्रज की इस अलौकिक होली लीला का आनंद लेने का मोह सवरण न कर पाने के कारण साक्षात् शिवपार्वती भी अपने समस्त गणों सहित ब्रजमंडल में पधारते हैं और इस होली महोत्सव में विशेष रंग भर देते हैं। महादेव ने प्रेमाभक्ति का ऐसा अद्भुत रंग रस “बनारस में बनाया और ब्रज बरसाने में बरसाया” जिसमें वे स्वयं भी सराबोर हो गए हैं और समस्त ब्रजमंडल को भी उसमें भिगोकर रंग दिया, उनके द्वारा रचे गए फाग में त्रिभुवन सराबोर हो नृत्य करने लगता है। इसीलिए इस फागुन शुक्ल आमलकी एकादशी को ब्रज और ब़नारस में “रंगभरनी एकादशी” भी कहा जाता है। इस दिन बनारस के काशी विश्वनाथ मंदिर में बाबा विश्वनाथ जी का विशेष श्रृंगार होता है और वृंदावन के बांके बिहारी मंदिर में विशेष होली उत्सव होता है। ऐसे अति अद्भुत लीला दृश्यों को देखते देखते सूर्य नारायण अस्ताचल को जाना भूल जाते हैं :
“रथ समेत रबि थाकेउ, निशा कवन बिधि होय।”
इस रहस्य को भगवान राधागोबिन्द व उनका परिकर बृन्द ही जानता है। देश विदेश से लोग ब्रज की इन सभी अद्भुत, अनुपम और अलौकिक होली लीलाओं का आनंद लेने ब्रजमंडल में आते हैं।

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